Saturday 10 March 2012

बुजुर्गों में बढ़ती असुरक्षा की भावना


एक समय था जब बुज़ुर्गों की तुलना घर की छत से की जाती थी जिसके आश्रय में परिवार के सभी सदस्य एक सुरक्षा की भावना महसूस करते थे, लेकिन आज वही छत अपने आप के लिये सुरक्षा की तलाश में भटक रही है. टूटते हुए संयुक्त परिवार, निज स्वार्थ की बढती हुई भावना, शहरों में परिवार के सदस्यों का रोज़गार के लिये पलायन, नैतिक और सामजिक जिम्मेदारियों का अवमूल्यन जैसे अनेक कारण हैं जिनके कारण बुज़ुर्ग आज परिवार में एक अनुपयोगी ‘वस्तु’ बन कर रह गये हैं.

बुजुर्गों में बढती हुई असुरक्षा के अनेक रूप हैं. कुछ बुज़ुर्ग आर्थिक रूप से पूर्णतः समर्थ हैं, लेकिन उनकी भी अनेक समस्याएं हैं. जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्हें ज़रूरत है अपनों के प्यार और कुछ समय के साथ की. उनके बच्चों की कुछ मज़बूरियां हो सकती हैं, विशेषकर उनकी जो विदेश में नौकरी और रोज़गार के लिये बस गये हैं. लेकिन कुछ ऐसे परिवार भी हैं जिनके बच्चे उसी शहर, कई बार उसी घर में रहते हैं लेकिन उनके बच्चे पास होते हुए भी दूर होते हैं. उनके पास हर चीज के लिये समय है सिर्फ़ माता पिता से कुछ समय मिलने और बात करने को छोड़ कर. बच्चों का यह व्यवहार अक्सर इन बुजुर्गों की मानसिक पीड़ा का कारण होता है. सब कुछ होते हुए भी अकेलेपन की पीड़ा का दर्द भोगते इन बुजुर्गों की स्तिथि सचमुच शोचनीय है. क्या केवल प्रेम की अपेक्षा करना भी गुनाह है?

लेकिन कुछ बुज़ुर्ग ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने सभी सीमित साधन बच्चों को अच्छी शिक्षा देने में लगा दिए और अपने भविष्य के लिये कुछ नहीं बचा पाए यह सोच कर कि बच्चे अगर अच्छी तरह स्थापित हो गये तो उन्हें बुढापे में कोई चिंता नहीं होगी. लेकिन बच्चे समर्थ होने पर भी माता पिता को भूल जाएँ और और यह कह कर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड लें कि उनके माता पिता ने जो किया यह उनका फ़र्ज़ था और सभी माता पिता यह करते हैं, तो उन माता पिता के दर्द को आप आसानी से समझ सकते हैं. भारत में सामजिक सुरक्षा की कोई संतोषजनक व्यवस्था न होने के कारण उनका जीवन किस तरह निकलता होगा इस की सहज कल्पना की जा सकती है. यह सही है कि कानून बच्चों को माता पिता की आर्थिक सहायता के लिये बाध्य कर सकता है, लेकिन कितने माता पिता मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से यह कदम उठाने और अदालतों के चक्कर लगाने में समर्थ हैं.

बुजुर्गों का परिवार में उत्पीडन, नौकरों या असामाजिक तत्वों द्वारा उनकी हत्या आदि समाचार लगभग रोज ही पढने  को मिल जाते हैं. आर्थिक रूप से असहाय बुजुर्गों के लिये सामाजिक सुरक्षा की सरकार की ओर से  कोई सार्थक योजना न होने के कारण हालात और भी दुखद हो जाते हैं. जिन्होंने अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष परिवार और समाज के लिये दे दिये क्या उन्हें अपने जीवन का अंतिम समय सुख और शान्ति से जीने का अधिकार नहीं? सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर बुजुर्गों को जो नाम मात्र की पेंशन दी जाते है क्या उसमें किसी व्यक्ति का गुज़ारा संभव है? जब न तो परिवार और न समाज ही उनकी जिम्मेदारी लेने को तैयार है तो ये बुज़ुर्ग इस उम्र में किस की ओर हाथ बढ़ाएँ? हम ये न भूलें कि सभी को एक दिन इस अवस्था से गुजरना होगा.

बचपन में सुनी एक कहानी याद आती है. एक समृद्ध पारिवार में बुज़ुर्ग पिता के साथ बहुत ही दुर्व्यवहार होता था और उनको खाना भी अलग से पत्तल और मिट्टी के सकोरे में दिया जाता था जिन्हें बाद में फेंक दिया जाता था. उस परिवार में एक छोटा बच्चा रोज यह देखता था. उसने एक दिन वह पत्तल और मिट्टी का सकोरा पानी से धो कर रख दिया जिसे देख कर उसके पिता ने पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है. बच्चे ने कहा कि पिता जी जब आप बुड्ढे हो जायेंगे तो आपके लिये भी तो खाना खिलाने को पत्तल और मिट्टी के सकोरे की जरूरत पड़ेगी. नए खरीदने में पैसा खर्च करने की बजाय ये धुले हुए पत्तल सकोरे ही आपके काम आ जायेंगे. बच्चे की बात सुनकर पिता की आँख खुल गयीं और उस दिन से उसका व्यवहार अपने पिता के प्रति बदल गया.

बुजुर्गों की समस्याओं के बारे में आज पारिवार, समाज और सरकार सभी को मिल कर सोचना होगा, वर्ना फ़िर हमें शायद अपनी भूल सुधारने का भी अवसर न मिले और जब हम उस अवस्था को पहुंचें तो और भी बदतर हालातों का सामना करना पड़े.

कैलाश शर्मा