Wednesday 30 July 2014

नारी सम्मान और हम

जब दामिनी के साथ घटे वीभत्स कृत्य पर सारा देश आक्रोश से उबला तो एक आशा जगी थी कि देश में स्त्रियों के प्रति हो रहे अपराधों के प्रति व्यवस्था और जनता जागरूक होगी और इन अपराधों में कमी आयेगी. लेकिन क़ानून में बदलाव और सुधार के बाद भी आज भी प्रतिदिन इन घटनाओं में कोई कमी नहीं दिखाई दे रही. जनता की जागरूकता, कड़े कानून, शीघ्र अदालती निर्णयों की व्यवस्था और पुलिस की सतर्कता के वाबजूद लगता है इन वहशियों को कोई डर नहीं, वर्ना इस आक्रोश और बदलाव का कुछ तो असर इन पर होता.

सबसे दुखद और चिंता की बात तो यह है कि आजकल बलात्कार और अन्य अपराधों में लिप्त होने में किशोरों की संख्या बढ़ती जा रही है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के द्वारा जारी २०१३ के आंकड़ों के अनुसार २०१३ में बलात्कार के अपराधों में किशोर अपराधियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई और अपराधों में लिप्त अधिकांश किशोरों की उम्र १६ से १८ के बीच थी. प्रतिदिन समाचार पत्र इस तरह की खबरों से अब भी भरे रहते हैं.

आवश्यकता है विचार करने की कि स्त्रियों के प्रति हो रहे विभिन्न अपराधों का मूल कारण क्या है. क्यों समाज में आक्रोश और कठोर दंड व्यवस्था के होने पर भी बलात्कार और स्त्रियों के प्रति अपराधों में कोई कमी नहीं आ रही? क्यों लड़कियां घर के अन्दर या बाहर अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं? स्त्रियों के प्रति अपराधों में पुलिस और व्यवस्था की सतर्कता एवं त्वरित और कठोर न्याय व्यवस्था अपनी जगह ज़रूरी है, लेकिन केवल इनके भय से ही ये अपराध नहीं रोके जा सकते. आवश्यकता है आज हमारे समाज को स्त्रियों के प्रति अपनी सोच पर पुनर्विचार करने की.

हमारे पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को एक दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा जाता है. अधिकांश घरों में पुरुष ही प्रधान है और उसका सही या गलत निर्णय ही सर्वोपरि होता है, जिसका विरोध करने का अधिकार स्त्रियों को नहीं होता. जिन परिवारों में महिलाएं आर्थिक रूप से समर्थ हैं वहां भी उन्हें बराबर का दर्ज़ा नहीं मिलता और प्रमुख पारिवारिक निर्णयों में उनकी राय को कोई महत्व नहीं दिया जाता. यह परंपरा परिवार में आगे चलती रहती है. हमारे परिवारों में आज भी बेटे को बेटी से अधिक महत्व दिया जाता है. बेटे की हर इच्छा पहले पूरी की जाती है और उसकी गलतियों को भी यह कह कर नज़रंदाज़ कर दिया जाता है कि लड़का है बड़ा होकर सब ठीक हो जाएगा. दूसरी ओर बेटियों को हमेशा यह याद दिलाया जाता है कि उन्हें दूसरे घर में जाना है और उन्हें ऐसा कोई कार्य नहीं करना है जिससे घर की बदनामी हो और उनके प्रत्येक कार्य पर निगरानी रखी जाती है. परिवार का लड़का जब इस वातावरण में बड़ा होता है तो उसके मष्तिष्क में यह बात मज़बूत होने लगती है कि वह विशेष है. जिस तरह पिता घर में प्रमुख है और उनकी गलतियों पर कोई उंगली नहीं उठा सकता, उसी तरह वह भी लड़का है और उसकी सभी गलतियाँ क्षम्य हैं.

जब लड़का पिता को घर में शराब पीकर बच्चों के सामने माँ को पीटता हुआ देखता है और माँ के समर्थन में परिवार का कोई सदस्य नहीं खड़ा होता तो लड़के के मष्तिष्क में यह बात बैठने लगती है कि पिता जो कर रहा है वह स्वाभाविक है और यह उसका पुरुष होने का अधिकार है और जब वह बड़ा होने लगता है तो उन्ही पद चिन्हों पर चलने लगता है. प्रत्येक लड़की उसके लिए सिर्फ़ एक वस्तु बन कर रह जाती है जिसका उपयोग करना वह अपना अधिकार समझने लगता है. लड़कियों की इज्ज़त और सम्मान करना एवं उनसे एक स्वस्थ सम्बन्ध रखना उसके लिए एक अनज़ान सोच होती है. इस सोच के चलते छोटी उम्र में ही लड़कियों के साथ छेड़ छाड़ और दुर्व्यवहार उसको स्वाभाविक लगते हैं और उसके मन में अपराध बोध की कोई भावना नहीं जगती और यही कारण है कि आजकल स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार के केसों में किशोरों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है.

केवल कठोर क़ानून या दंड व्यवस्था से इस समस्या का स्थायी हल संभव नहीं. परिवार समाज की वह इकाई है जहाँ बच्चों में संस्कार व आचरण की नींव पड़ती है. अगर हमें अपनी अगली पीढ़ी और बच्चों को अपराधों की दुनिया से दूर रखना है तो इसकी शुरुआत हमें पहले अपने घरों से करनी होगी. जरूरी है हमें स्त्रियों के प्रति अपनी सोच और व्यवहार बदलने की. अगर हम हम स्वयं घर की स्त्रियों माँ, पत्नी, बेटी को उनका सम्मान और हक़ देने लगें तो घर के बच्चों पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा और बचपन से ही वह माँ, बहन एवं अन्य लड़कियों के प्रति इज्ज़त और सम्मान का भाव रखने लगेंगे. अगर घर में स्वस्थ और खुशहाल वातावरण है तो निश्चय ही इसका प्रभाव बच्चों पर भी पड़ेगा और वे एक स्वस्थ सोच के साथ जीवन में आगे बढ़ेंगे.

संयुक्त परिवारों में घर के बुज़ुर्ग बच्चों को सही आचरण की शिक्षा के द्वारा उनको सही रास्ते पर चलने में मार्गदर्शन करते थे. लेकिन संयुक्त परिवारों के बढ़ते हुए विघटन के बाद आज माता पिता को अपनी अपनी व्यस्तताओं के चलते हुए बच्चों के साथ सार्थक समय व्यतीत करने का समय नहीं होता और अधिकांश परिवारों में बच्चों को व्यस्त रखने के लिए छोटे बच्चों के हाथों में ही मोबाइल और लैपटॉप पकड़ा देते हैं जिनमें वे अपनी पसंद के खेलों में व्यस्त रहते हैं और वे यह भी नहीं देखते कि बच्चे क्या देख रहे हैं, क्या खेल रहे हैं. उनको सद आचरण, संस्कारों के बारे में बताने के लिए समय देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.

इस तरह के वातावरण में पले बच्चे, नियंत्रण एवं मार्गदर्शन के अभाव में, जब घर से बाहर किसी गलत संगत में पड जाते हैं तो बहुत शीघ्र गलत संगत से प्रभावित हो जाते हैं. यहीं से प्रारंभ हो जाता है उनका पहला कदम अपराध की दुनिया में और सही मार्ग दर्शन के अभाव में बड़े अपराधों की दुनिया में कदम रखने में देर नहीं लगती.

अगर हमें अपनी युवा पीढ़ी को अपराध की दुनिया से बचाना है तो उनके सुखद भविष्य के लिए इसकी शुरुआत हमें सबसे पहले अपने घर से ही करनी होगी. हमें स्वयं घर में माँ, पत्नी, बहन, बेटी आदि को उचित सम्मान दे कर बच्चों के सामने एक सार्थक उदाहरण रखना होगा जिस पर वह आगे चल सकें. लड़के और लड़कियों को समान प्यार, सम्मान और मार्ग दर्शन देना होगा. केवल क़ानून व्यवस्था को दोष देने से काम नहीं चलेगा, इसकी शुरुआत हमें स्वयं अपने घर से करनी होगी.

...कैलाश शर्मा


23 comments:

  1. आपके विचारों से पूर्णतः सहमत
    बेहतरीन मार्गदर्शक लेख के लिए प्रणाम

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  2. सार्थक चिंतन के साथ महत्वपूर्ण आलेख ! किशोरों की दूषित मानसिकता के लिए काफी हद तक मानसिक रूप से परिपक्व हो जाने से पहले ही इंटरनेट तक उनकी पहुँच ज़िम्मेदार है ! आजकल हर दूसरे बच्चे के पास मंहगे मोबाइल होते हैं जिसमें सब कुछ उपलब्ध होता है ! बच्चों की जिज्ञासा अपरिमित होती है ! सही मार्गदर्शन एवं उचित नियंत्रण के अभाव में उनकी पथभ्रष्ट होना स्वाभाविक है ! माता-पिता ही इस दिशा में सही निर्णय ले सकते हैं !

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  3. उत्कृष्ट विषय पे बहुत ही उत्कृष्ट लेख
    बहुत ही सुन्दर पूर्णतः सहमत।

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  4. आपने सही बात उठाई है। पर वहशियों को सजा तो हुई ही नहीं। कुछ और भी कारण हैं जिस पर कभी चर्चा-विमर्श ही नहीं होता।

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  5. जितनी तेज़ी से भोगवाद बढ़ रहा अहि अपराध भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ रहे हैं ...
    रफ़्तार में कोई सोचना नहीं चाहता बस करना चाहते हैं चाहे जुर्म ही क्यों न हो ...

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  6. विचारणीय बात , हालात विकट हैं

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  7. sahi baat kahi aapne ....shuruaata ghar se hi karni hogi..

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  8. सत्य कह रहे हैं आप, बेहद सतर्क और सजग दृष्टि लिए हुए है आपका आलेख. समाज को ऐसे विचारो की जरुरत है

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  9. बिल्‍कुल सच कहा आपने .... सार्थकता लिये सशक्‍त प्रस्‍तुति

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  10. नारी के उत्थान की बातें करते लोग बड़ी हैं !
    फिर भी नारी प्रश्न-बोझ के नीचे दबी खड़ी है है !

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  11. शायद हम अपने बच्चों को ठीक से संस्कार नही दे रहे हैं। जब अपने ही घर में बच्चा रोज माँ को पिटता, गाली खाता देखेगा, तो कैसे सम्मान कर पायेगा नारियों का। हमारे स्कूलों में और घरों में देने होंगे संस्कार जो नही दिये जा रहै । आये दिन खुलती पोर्न साइटस जो कि इन बच्चों को आसानी से उपलब्ध है इस आग में घी का काम कर रही हैं। इसकी सजा लिंग विच्छेद जैसी सख्त हो तो ही कुछ सुधार हो सकता है।

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  12. क्यों घर में नौकरानी सी पल रही है बेटी
    लडकी है लकडी जैसी क्यों जल रही है बेटी ?
    संवेदना कहॉ है यह क्या हुआ मनुज को
    बेबस सी रात - दिन यूँ क्यों रो रही है बेटी ?

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  13. सहीं कहाँ आपने हमें शुरू स्वयं के घर से ही करना हो, क्योंकि हर घर मिलकर एक भारत का निर्माण करता हैं।

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  14. बहुत सुन्दर प्रस्तुति… यही कटु सत्य है!

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