Friday 18 April 2014

“परछाइयों के उजाले” – आईना ज़िंदगी का

कविता वर्मा जी के कहानी लेखन से पहले से ही परिचय है और उनकी लिखी कहानियां सदैव प्रभावित करती रही हैं. उनका पहला कहानी संग्रह “परछाइयों के उजाले” हाथ में आने पर बहुत खुशी हुई. पुस्तक को एक बार पढ़ना शुरू किया तो प्रत्येक कहानी अपने साथ भावों की सरिता में बहा कर ले गयी. ज़मीन से जुड़ी कहानियों के कथ्य, पात्र और भाव अपने से लगते हैं और अहसास होता है कि जैसे अपने घर आँगन में पसरे हुए हालात, कमरे की खिड़की से झांकते हुए आस पडौस की दुनियां को देख रहे हैं. जीवन के विभिन्न आयाम कहीं नारी मन की व्यथा, अंतर्द्वंद और उसका आत्म-विश्वास, कहीं रिश्तों के दंश तो कहीं प्रेम के विभिन्न अहसास कहानियों में प्रखरता से उभर कर आये हैं. समाज के अभिजात्य, मध्यम एवं पिछड़े वर्गों की वेदना और मज़बूरी को लेखिका ने बहुत प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है. कहानियों का कथ्य व शैली किसी भी वाद से परे है और कहानियां केवल कहानियां हैं – जीवन के यथार्थ का दर्पण - और यही विशेषता पाठक को कहानियों से अंत तक बांधे रखती है. कहानियों का शिल्प व भाषा सहज और सरल है और अंत तक रोचकता बनाये रखने में सक्षम है.

‘एक नयी शुरुवात’ की स्नेह और ‘जीवट’ की फुलवा आत्म-विश्वास से परिपूर्ण ऐसी नायिका हैं जो किसी भी हालात का जीवट से सामना कर सकती हैं. समृद्ध परिवार की स्नेह एक तरफ़ अपनी भावनाओं और प्रेम के लिए अपने परिवार से संघर्ष को तैयार हो जाती है वहीँ वह एक व्यावहारिक सोच का सहारा लेकर ऐसा निर्णय लेती है जो उसके जीवन की दिशा ही बदल देता है. फुलवा एक  गरीब पिछड़े वर्ग की एक प्रतिनिधि पात्र है जो स्वयं मेहनत मज़दूरी कर के घर का खर्चा चलाती है लेकिन जब उसके स्वाभिमान और ममता को चोट लगती है तो वह एक निर्णय लेती है ‘मुझे किसी के सहारे की क्या जरूरत है औरत हूँ तो क्या?’. यही आत्म-विश्वास और व्यावहारिकता ही दोनों कहानियों का सशक्त पक्ष है.

कितना आसान होता है रिश्तों को सगों और सौतेलों की परिभाषाओं से बाँट देना. सम्पत्ति के बंटवारे की आशंका से स्नेह के रिश्तों पर भी सौतेलेपन की धूल जमने लगती है और निस्वार्थ स्नेह को भी आशंका की दृष्टि से देखा जाने लगता है. संपत्ति के लालच में सौतेले संबंधों के स्नेह पर संदेह करना जब कि अपना खून भी आज कल संपत्ति के लालच से परे नहीं है , इन्ही सब प्रश्नों से जूझती कहानी ‘सगा सौतेला’ आज के बदलते रिश्तों की सच्चाई को बहुत संवेदनशीलता से चित्रित करती है.

व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए किस तरह एक गरीब की मज़बूरी और परेशानियों का किस हद तक भावनात्मक शोषण कर सकता है इसकी प्रभावी अभिव्यक्ति है कहानी ‘निश्चय’. मालकिन रेनू के अहसानों से दबी मंगला के सामने जब उसकी सहायता के पीछे रेनू का स्वार्थ और दोगलापन स्पष्ट हो जाता है तो वह निश्चय लेने में एक पल की देर नहीं करती. समाज में व्याप्त स्वार्थ और दोगलेपन को लेखिका ने इस कहानी में बहुत गहराई से रेखांकित किया है.

‘पुकार’ एक ऐसी भावपूर्ण कहानी है जिसका प्रस्तुतिकरण इतना स्वाभाविक और सहज है कि लगता नहीं कि आप कोई कहानी पढ़ रहे हैं. एक एक शब्द भावों का समंदर है. कहानी का अंत अन्दर तक झकझोर देता है.

अगर एक माँ एक बच्चे को पीटती है तो यह उसका अधिकार समझा जाता है, लेकिन एक निस्संतान स्त्री अगर उस बच्चे को जिसे वह अपने पुत्र की तरह पालती है और उसमें अच्छी आदतें डालने के लिए सख्ती करती है तो उसे अत्याचार समझा जाता है और सभी उंगलियाँ उसकी ओर उठने लगती हैं. एक निस्संतान स्त्री का दर्द ‘लकीर’ कहानी में बहुत शिद्दत और मार्मिकता से उभर कर आया है.

पुरुष प्रधान समाज में विशेषकर ग्रामीण परिवेश में जब स्त्री पर घर के सदस्य की ही कुदृष्टि हो उस स्त्री की मनोदशा को ‘आवरण’ कहानी में बड़े प्रभावी ढंग से उकेरा है. एक असहाय स्त्री को जब एक दूसरी असहाय सी प्रतीत होने वाली जेठानी का सहारा मिल जाता है तो वह हरेक हालात से मुकाबला करने को खड़ी हो जाती है. सुकुमा और उसकी जेठानी का चरित्र चित्रण कहानी का एक सशक्त पक्ष है.

‘एक खालीपन की नायिका’ माया एक आज की नारी है जिसने अपनी माँ को सदैव पिता के डर के तले जीते देखा. लेकिन माया की सोच है ‘क्यों किसी के लिए जिए जिन्दगी? क्या मिलेगा इस तरह अपनी जिन्दगी किसी और के पास गिरवी रख कर?’ नारी का स्वाभिमान पुरुष के अहम् को सहन नहीं होता और वह चाहता है कि नारी अपना अस्तित्व भूल कर उसके अहम् को पोषित करे. माया को यह स्वीकार नहीं कि वह किसी के अहम् को संतुष्ट करते करते खुद चुक जाए, अकेलेपन के ‘खालीपन में कम से कम वह खुद के साथ तो है.’ माया के मानसिक द्वन्द को कहानी में बहुत ही प्रभावी ढंग से उकेरा गया है. यह कहानी केवल माया की कहानी नहीं बल्कि प्रत्येक उस नारी के मानसिक संघर्ष की कहानी है जो अपने अस्तित्व और स्वाभिमान को किसी के पैरों तले कुचलता नहीं देख सकती.

परिवार में या समाज में जब कमजोर व्यक्ति आगे बढ़ने और अपना अस्तित्व व वर्चस्व बनाने की कोशिश करता है तो परिवार के सदस्यों या समाज के चौधरियों को अपनी स्थापित प्रतिष्ठा डगमगाती दिखाई देने लगती है और फिर होता है प्रयत्न उसको नीचा दिखाने का. ‘दलित ग्रंथी’ कहानी में इसी संघर्ष को बहुत प्रभावी रूप में उजागर किया है. कहानी के चरित्र अपने से और जीवंत लगते हैं और यही कहानी का सबसे बड़ा आकर्षण है.

‘डर’ और ‘पहचान’ ऐसी समसामयिक कहानियां हैं जो बिल्कुल स्वाभाविक और विश्वसनीय लगती हैं. जब नारी को अपनों के द्वारा ही छला जाये तो वह अपने आप को कितनी कमजोर और लाचार पाती है, लेकिन अगर उसे सही समय पर सहारा और मार्गदर्शन मिल जाए तो वह किसी भी मुसीबत का सामना कर सकती है. ‘डर’ की नायिका को जब आंटी जी का सहारा मिल जाता है तो वह सब डर भूल कर परिस्थितियों का सामना करने को तैयार हो जाती है. ‘पहचान’ की वेदिका पति की मृत्यु के बाद जब अपने आप को अपनों के बीच अजनबी पाती है और टूट जाती है तो राधिका और आशा उसका हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हैं और उनके सहारे और अपने साहस से वह अपनी एक ऐसी पहचान बना पाती है जिसके सामने सब नत मस्तक हो जाते हैं. दोनों कहानियां अंतस को गहराई तक छू जाती हैं.

‘परछाइयों के उजाले’ स्त्री मन की भावनाओं को समझने का एक बहुत गहन प्रयास है. स्त्री पुरुष के बीच केवल शारीरिक संबंध ही नहीं होता, उनके बीच दोस्ती का भावनात्मक लगाव भी हो सकता है, लेकिन इसे समाज सदैव शक़ की नज़रों से देखता है. उम्र के ढलते पड़ाव में भी किसी पर-पुरुष के सानिध्य में भावनात्मक ख़ुशी का अहसास करने में भी समाज का डर नारी जीवन का एक ऐसा दर्द है जिसे कहानी में बहुत ही संवेदनशीलता से उकेरा है.

जीवन के इर्द गिर्द घूमती कहानियां पाठक को अंत तक अपने साथ बांधे रखती हैं. एक पठनीय और संग्रहणीय कहानी संग्रह के लिये लेखिका बधाई की पात्र हैं. विश्वास है कि कविता जी की लेखनी से ऐसे कहानी संग्रह आगे भी पढ़ने को मिलते रहेंगे. पुस्तक प्राप्ति के लिए कविता वर्मा जी से E-mail ID kvtverma27@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

पृष्ठ  : 142
मूल्य : Rs.150/-
प्रकाशक : मानव संस्कृति प्रकाशन, इंदौर


.....कैलाश शर्मा