Tuesday 14 April 2015

एक सिक्का, दो पहलू (लघु-कथा)

अप्रैल माह रविवार की एक भीगी भीगी सी सुबह थी. खिड़की से बाहर झांकती सुमन बोली ‘रमेश, बाहर देखो कितना सुहावना मौसम है. रात भर ओले और तेज बारिस के बाद बाहर कितना अच्छा मौसम हो गया है. बहुत दिन हो गए गर्मी में घर में बैठे बैठे. चलिए कहीं पिकनिक पर चलते हैं बच्चों के साथ.’

‘ठीक है सुमन. तुम बच्चों को भी तैयार कर लो. पहले लम्बी ड्राइव पर चलेंगे और किसी रिसोर्ट में लंच करेंगे.’ बिस्तर से उठते हुए रमेश बोला.

‘जी, आज सारा दिन बाहर ही गुजारेंगे और रात को पिक्चर देख कर और बाहर ही खाना खा कर आयेंगे.’ सुमन ने रमेश के गले लगते हुए कहा और गुनगुनाते हुए कमरे से बाहर निकल गयी.
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रात भर तेज बारिस और कड़कती बिजली का शोर श्यामू के मन को दहलाता रहा. खपरैल की छत पर ओलों के गिरने की तीव्र आवाज़ सर पर पत्थर की चोट जैसी लग रह थी. रात भर वह अप्रैल के महीने में बे-मौसम बरसात और खेतों में खड़ी फसल के बारे में सोच कर सो नहीं पाया. कई बार खेतों में जाने की सोचा, लेकिन बारिस की तीव्रता को देख कर वह मन मसोस कर रह गया. सुबह उठते ही बाहर आकर देखा तो बादल साफ़ थे और वह पत्नी की नास्ते के लिए आवाज़ अनसुनी करके खेतों की ओर भागा. ओले और तेज बारिस से नीचे जमीन पर पड़े गेहूँ की बालियों को देख कर उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं. अपने खेत में गेहूँ की कल तक लहलहाती बालियों को आज जमीन पर गिरी देख उसकी आँखों के सामने साहूकार, भूखे बच्चों और शादी के योग्य बेटी कमला की सूरत तैरने लगी. बेमौसम बरसात से अपने सपनों को जमीन पर कुचला पड़ा देख उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और वह अपने सीने को पकड़ कर जमीन में लेटी हुई गेहूँ की बालियों पर बेजान हो गिर पड़ा. उसकी खुली आँखें एकटक खोज रहीं थीं आसमान के गर्भ में छुपे बेमौसम काले बादलों को.   

...कैलाश शर्मा