भ्रष्टाचार केवल
वर्तमान समय की देन नहीं है. यह हरेक युग में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा
है, यद्यपि इसका रूप, मात्रा और तरीके समय समय पर बदलते रहे हैं. कौटिल्य ने
अपने ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ में राज कर्मचारियों द्वारा सार्वजनिक धन के दुरुपयोग के तरीकों का विषद
वर्णन किया है.
भारत में स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद सरकार के कार्यक्षेत्र में वृद्धि के साथ, भ्रष्ट आदमियों को
ज्यादा मौके मिलने की वजह से, भ्रष्टाचार में भी असाधारण वृद्धि हुई. सरकार ने
भ्रष्टाचार का मुकाबला करने के लिये अनेक कानून और संस्थाएं जैसे केन्द्रीय
सतर्कता आयोग, सी बी आई, लोकायुक्त, प्रत्येक सार्वजनिक संस्थान में सतर्कता विभाग
आदि बनाए, पर बढ़ते हुए भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नहीं लग पाया और आज तो इसका उच्च
स्तर पर भी विकराल रूप दिखाई दे रहा है. वर्तमान में लोक पाल बनाने की मांग अन्ना
जी के नेतृत्व सारे देश में फ़ैल गयी है.
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि
भ्रष्टाचार को कम करने में कठोर कानून, निष्पक्ष जांच संस्था, न्यायालय में शीघ्र निर्णय आदि महत्वपूर्ण
भूमिका अदा करते हैं, लेकिन यह सोचना कि केवल इन उपायों से भ्रष्टाचार मूलतः
समाप्त हो जाएगा सिर्फ़ एक दिवास्वप्न होगा. अगर हम समाज से वास्तव में भ्रष्टाचार
समाप्त करना चाहते हैं तो हमें अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक सोच में भी पूर्णतः
बदलाव लाना होगा.
आज हम जीवन में संतुष्टि की महत्ता भूलते जा
रहे हैं. उपभोक्तावाद की आंधी में हम जिस भी नयी चीज का विज्ञापन देखते हैं, तुरंत
सोचने लगते हैं कि उसे किस तरह प्राप्त किया जाये. हम अपने जीवन के शुरुआत में ही
वह सब चीजें अपने पास चाहते हैं जिनको पाने की हमारी आर्थिक क्षमता नहीं है.
पारिवार का वातावरण और सोच इसमें महत्वपूर्ण भाग अदा करती है. हमें यह नहीं भूलना
चाहिए कि हरेक भ्रष्ट व्यक्ति के पीछे एक लालची परिवार होता है. जहां तक सरकारी
कर्मचारियों की बात है आज उन्हें जो वेतन मिलता है उसमें वे आराम से जीवन यापन कर
सकते हैं, बशर्ते उनके अन्दर संतोष की भावना हो. परिवार के सभी सदस्यों को पता
होता है कि परिवार के मुखिया की कितनी आमदनी है और अगर परिवार के सभी सदस्यों के
अन्दर यह भावना आ जाये कि इस आय में ही गुजारा करना है, तो भ्रष्ट तरीकों से पैसा
कमाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.
पैसे की कमी भ्रष्टाचार का कारण नहीं है,
वर्ना उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त न होते. प्रत्येक की
आवश्यकताओं के लिये काफी है, लालच के लिये नहीं. जब परिवार के अन्दर अपने हालातों
से संतुष्टि की भावना आ जायेगी, तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह एक बहुत बड़ा कदम
होगा. इसके लिये आवश्यक है कि परिवार और समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना की
जाये और स्कूल से ही नैतिक शिक्षा स्कूल के पाठ्यक्रम का एक हिस्सा हो. अगर हम नयी
पीढ़ी में ईमानदारी की भावना पैदा नहीं कर पाए तो परिवार, समाज और देश के लिये
उज्वल भविष्य की कामना व्यर्थ है.
एक समय था जब भ्रष्ट व्यक्ति को समाज में
अवांछित समझा जाता था, लेकिन आज उसी व्यक्ति की इज्ज़त की जाती है जिसके पास पैसा
है, बिना इस बात पर विचार किये कि यह पैसा उसने कैसे कमाया है और हमारी यह सोच भ्रष्ट
व्यक्तियों को महिमामंडित करती रहती है. समाज को इस सोच में बदलाव लाने की आवश्यकता
है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार कुछ समय सुख सुविधाएँ दे सकता है, पर यह
सदैव छिपा नहीं रह सकता.
कुछ सामजिक कुरीतियाँ जैसे दहेज़ प्रथा, महंगी होती जा रही शिक्षा व्यवस्था आदि भी भ्रष्टाचार के प्रमुख कारणों में से है, जिन्हें दूर करने के सभी को मिल कर प्रयास करने होंगे.
कुछ सामजिक कुरीतियाँ जैसे दहेज़ प्रथा, महंगी होती जा रही शिक्षा व्यवस्था आदि भी भ्रष्टाचार के प्रमुख कारणों में से है, जिन्हें दूर करने के सभी को मिल कर प्रयास करने होंगे.
जब तक हम खुद ईमानदार नहीं होंगे, तब तक
भ्रष्टाचार समाप्त करने की बातें व्यर्थ हैं. रिश्वत दे कर हम तत्काल होने वाली
कुछ असुविधाओं को टाल सकते हैं, लेकिन हमारा यह एक कदम दूसरों को सदैव भ्रष्ट बने
रहने को प्रेरित करता रहेगा. भ्रटाचार के खिलाफ लड़ाई हर व्यक्ति की लड़ाई है. अगर
हम भारत को विकसित और भ्रष्टाचार मुक्त देखना चाहते हैं तो हमें सोचना होगा कि हम
इस में व्यक्तिगत और सामाजिक रूप में कितना योगदान दे सकते हैं.
इस सन्दर्भ में मेरी ये पंक्तियाँ शायद आपको
पसन्द आयें :
भोर सुनहरी करे प्रतीक्षा, सत्य मार्ग के राही की.
भ्रष्ट न धो पायेगा अपनी लिखी इबारत स्याही की.
कब तक छिपा सकेगी चादर
दाग लगा जो दामन में,
बोओगे तुम यदि अफीम तो
महके तुलसी क्यों आँगन में.
भ्रष्ट करो मत अगली पीढ़ी अपने निंद्य कलापों से,
वरना ताप न सह पाओगे, अपनी आग लगाई की.
भ्रष्ट व्यक्ति का मूल्य नहीं है
उसकी केवल कीमत होती.
चांदी की थाली हो, या सूखी पत्तल,
सबको खानी होती है,केवल दो रोटी.
भरलो अपना आज खज़ाना संतुष्टि की दौलत से,
कहीं न काला धन ले आये तुमको रात तबाही की.
कैलाश शर्मा