२०-२५ साल पहले की घटना है. अपने कार्यालय के कार्य से मुझे गुड़गाँव जाना था. उस समय का गुड़गाँव आज की तरह विकसित नहीं, बल्कि एक छोटा सा शहर था. मैं शिवाजी स्टेड़ियम (दिल्ली) से बस पकड़ कर गुड़गाँव गया और उसी दिन कार्य समाप्त करके शाम को ४ बजे के करीब स्थानीय बस अड्डा पहुंचा. वहाँ मैंने टिकट खिडकी पर विभिन्न स्थानों को जाने वाली बसों के बारे में पढ़ा तो मुझे ‘वजीरपुर’ लिखा दिखाई दिया. मैं दिल्ली में पीतमपुरा में रहता था और वजीरपुर वहां से बिलकुल पास ही था, इसलिये मैंने वजीरपुर का टिकट लिया और बस में बैठ गया. बस के चलने के करीब एक घंटा बाद भी मुझे जब मुझे आसपास कोई आबादी के लक्षणों की बजाय खेत ही दिखाई देते रहे तो मैंने सहयात्री से पूछा कि वजीरपुर अभी कितनी दूर है. जब उसने बताया कि वजीरपुर तो निकल गया, तब मैंने कहा कि अभी तक दिल्ली शहर की आबादी तो आयी ही नहीं. उसने जवाब दिया कि यह बस दिल्ली नहीं जाती बल्कि वजीरपुर गाँव जो हरियाणा में है वहां होकर जाती है. उसने मुझे सुझाव दिया कि अगले बस स्टॉप पर उतर कर, दूसरी बस ले कर वापिस गुड़गाँव जाऊं और वहां से दिल्ली की बस ले लूं. मैं अगले बस स्टॉप पर उतर गया और आसपास बिलकुल सुनसान इलाका दिखाई दिया. दिसंबर का महिना होने के कारण ठण्ड बहुत थी और बिलकुल अंधेरा हो चुका था. बस जिस सड़क पर जा रही थी वह कोई बड़ा हाइवे नहीं था और कोई वाहन भी सड़क पर चलते नहीं दिखायी दे रहे थे. करीब १ किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव की कुछ बत्तियाँ टिमटिमा रहीं थीं. बस स्टॉप पर कोई दुकान वगैरह भी नहीं थी. वहां से गुजरते हुए एक व्यक्ति से पूछने पर पता चला कि ८ बजे के करीब एक बस गुडगाँव के लिये आती है पर उसका आना पक्का नहीं, कई बार वह नहीं भी आती और उसके बाद कोई बस नहीं है. वह मोबाइल फोन या पी सी ओ का जमाना नहीं था और उस सुनसान जगह से कार्यालय या परिवार को सूचित करने का भी कोई साधन नहीं था. जैसे जैसे अँधेरा बढ़ रहा था और इक्का दुक्का लोगों का आना जाना भी कम होता जा रहा था, वैसे वैसे मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी.
अचानक गाँव की तरफ से एक कार आती दिखाई दी और जब मैंने उन्हें हाथ दिखाया तो उन्होंने कार रोक दी. पूछने पर उन्होंने बताया कि वे गुड़गाँव जा रहे हैं. यद्यपि कार में पहले से ही चार व्यक्ति बैठे थे, लेकिन जब मैंने उन्हें अपनी समस्या बतलाई तो उन्होंने मुझे कार में बैठ जाने को कहा. मैंने उन्हें गुड़गाँव में कहीं भी उतार देने के लिये कहा लेकिन उन्होंने मुझे बस स्टैंड तक छोड़ा. मैं जल्दी जल्दी में उन्हें ठीक तरह से धन्यवाद भी न दे पाया. लेकिन उनके द्वारा उस समय दी गयी सहायता मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ. इस घटना ने मेरे मन मष्तिष्क पर सदैव के लिये एक अमिट याद छोड़ दी और सोचने लगा कि मैं भी इसी तरह किसी ज़रूरतमन्द की सहायता करके इस अहसान का कुछ अंश चुकाने की कोशिश करूंगा और कुछ वर्षों तक मेरा यह प्रयास भी रहा॰
लेकिन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहतीं और आज के हालात के बारे में जब सोचता हूँ तो बहुत दुःख होता है. आजकल, विशेषकर दिल्ली और उसके आसपास, यह समाचार आम हो गये हैं कि किसी व्यक्ति या लड़की ने कार में लिफ्ट माँगी और कार में बैठने पर उस व्यक्ति को लूट लिया या उसकी हत्या कर के गाड़ी ले कर भाग गये. अब तो पुलिस भी अनजान आदमी को लिफ्ट न देने की सलाह देती है. ऐसे हालात में सच में मुसीबत में फंसे व्यक्ति को भी हम चाहते हुए सहायता नहीं कर पाते, क्योंकि सच और झूठ का अंतर करना बहुत मुश्किल हो जाता है.
आज श्री सुदर्शन जी की प्रसिद्ध कहानी ‘हार की जीत’ जो स्कूल में पढ़ी थी याद आती है, जिसमें बाबा भारती का प्रिय घोड़ा जब डाकू खड़ग सिंह धोके से अपाहिज बनकर ले जाता है तो वे उससे कहते हैं कि यह बात किसी को बताना नहीं क्यों कि लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन दुखियों पर विश्वास नहीं करेंगे. इस बात पर एक डाकू का ह्रदय भी बदल जाता है. कहानी का सन्देश कितना सटीक और सच था, इसे आज हम अपनी आँखों से देख रहे हैं. जो व्यक्ति आप से सहायता मांग रहा है, वह हो सकता है सच में किसी परेशानी में हो, लेकिन जब दिन प्रति दिन कार में लिफ्ट मांग कर बदमाशों द्वारा लूटे जाने की घटनाएँ पढते हैं तो मन एक अनिश्चय की स्तिथि में आ जाता है और अधिकांशतः हम अपनी आँख मूँद लेना ही बेहतर समझते हैं. आज के लुटेरों से खड़ग सिंह की तरह संवेदनशीलता की आशा व्यर्थ है.
जब भी किसी को, विशेष कर रात्रि के समय, सड़क पर लिफ्ट माँगने के लिये हाथ उठाते देखता हूँ, तो हर बार मुझे दी गयी सहायता की घटना आँखों के सामने आ जाती है और पैर स्वतः ब्रेक पेडल पर पड़ने को तत्पर हो जाते हैं, लेकिन मन की आवाज को दबा कर मैं बिना उस ओर ध्यान दिए तेजी से आगे निकल जाता हूँ, यद्यपि रास्ते भर मुझे उसकी सहायता न करने का अफ़सोस रहता है और सोचने लगता हूँ कि अगर मुझे भी उस समय लिफ्ट नहीं मिली होती तो मैं कितनी बड़ी परेशानी में फंस जाता. आप ही बतायें कि क्या मैं गलत हूँ ?
main abi itna bada to nai hua ki dunia samjh saku par hme ab bhi insaaniyat ki sunni chahiye aajkal bhi bhot se log aise hai jo galat kaam krte h par wo galat kaam ki wjh hoti h kisi ache insaan ko nuksaan bhot kam log pahuchate hai
ReplyDeleteaabhar ki aap mere blog ke samrthak bane.aaj ki post aapki vartman paristhitiyon ka sahi aanklan kar rahi hae.
ReplyDeletesach kaha aapne ham kitne bhi samvedansheel sahi par parisithyion ke anuroop hame khud ko badalna hi padta hai...dil chuti aapki rachna...
ReplyDeleteज़माना सचमुच बहुत बदल गया है....जरूरतमंद की भी सहायता से लोग डरते हैं...और उनका डरना भी वाजिब ही है...सच्चे झूठे की पहचान बहुत मुश्किल है..
ReplyDeleteयह समय का तकाजा है, जो दुखद है
ReplyDeleteदिल है कि मानता नहीं,कोमल मन को पाषाण बनाना आसान नहीं है.यह अंतर्द्वंद् तो चलता ही रहेगा.
ReplyDeletejo achchha lage use apna lo , jo bura lage use jane do...
ReplyDeleteteji se jate samay peechhe mudkar dekhna ghalat hai aur door jane par palatkar dekhana aur bhi ghalat hai..
atah beeti tahi bisar de aage ki sudh le...
आप ठीक ही हैं ....
ReplyDeleteअगर न मानें तो २ -३ बार मदद करके देखें ! एक बार आप अवश्य लुटेंगे !
तकलीफदेह है मगर सत्य है भाई जी !
kuch galat logon ke wajah se kayee achhe logon ki madad n kar paane ka afsos to hota hai lekin kya kare jamane ko dekhkar chalne mein bhi bhalai hoti hai..
ReplyDeletebadiya jagrukta bhari prasuti...
कार में चार लोग थे और आप अकेले -यह बड़ा रिस्की था ।
ReplyDeleteयदि कार में आप हों अकेले तो भी किसी को लिफ्ट देना खतरे से खाली नहीं ।
यहाँ तो दिल की बजाय दिमाग से काम लेना ही उचित है ।
आपका पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteसच कहा बुरे वक्तमे कोई मदद करता है तो उम्र भर के लिय अंकित हो जाते है वो पल ....और दुनियाँ में आभी भी अच्छे लोग है
ReplyDeletekuchh kahna mushkil hai....
ReplyDeletehar sahi ya galat ko paristhiti aur samay hi sahi ya galat thahraata hai.....
kahani nissandesh khubsoorat hai...
जिस तरह की घटनायें आज कल हो रही हैं,उस स्थित में बिना जान पहचान के आदमी को लिफ्ट देना सही नही है.
ReplyDeleteजिस तरह की घटनायें आज कल हो रही हैं,उस स्थित में बिना जान पहचान के आदमी को लिफ्ट देना सही नही है.
ReplyDeletesach hai logon ki soch badal gyee hai.
ReplyDeleteज़माने के बदलावों ने मेरी दिली तमन्नाओं का क़त्ल कर दिया...अफ़सोस है मगर पहले मैं ऐसा न था!
ReplyDeleteखूबसूरत वाकया...खूबसूरत शब्दों में...वाह!
भाई साहब आज हर घटना का सन्दर्भ बदल गया है रिश्ते पलट गए हैं .फिर भी व्यक्ति अपना मूल स्वभाव नहीं छोड़ता है .
ReplyDeleteमेरे दूसरे ब्लॉग राम राम भाई पर भी दस्तक देवें .
कैलाश जी नमस्कार नव वर्ष की हार्दिक बधाई। आप सही है पर वक्त ही बदल गया है विश्वास टूट्ते देर नही लगती।
ReplyDeleteमुझे नहीं लगता कि आप गलत हैं। अक्सर ऐसा ही मेरे साथ भी होता है। देर रात को लिफ्ट के लिए उठे हाथों की अनदेखी करनी पड़ती है। अफसोस तो होता ही है।
ReplyDeletebilkul sahi bat hai hme mdd krni chahiye pr halat ko dekhte huye dr lgta hai.
ReplyDeleteकैलाश जी , समय बदल रहा है..नव वर्ष की हार्दिक बधाई
ReplyDeletepostingan yang bagus tentang"किसकी सुनूँ - इंसानियत या ड़र ?"
ReplyDeleteशर्मा जी नमस्कार...
ReplyDeleteआपके ब्लॉग 'बातें कुछ दिल की' से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 14 अगस्त को 'किसकी सुनू-इंसानिय या डर?' शीर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
धन्यवाद
फीचर प्रभारी
नीति श्रीवास्तव
ausom
ReplyDeleteausom
ReplyDeleteValentine's Day Gifts for Girlfriend Online
ReplyDelete