Saturday 9 September 2017

बैंकों में राजभाषा की असली तस्वीर

हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर है इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारी हिंदी के प्रति सोच और व्यवहार है. सार्वजनिक मंच पर हिंदी को प्रशासन और जनसाधारण की एक मात्र भाषा बनाने की प्रतिज्ञा लेकर जब हम अपने घर या कार्यस्थल पर पहुंचते हैं तो हमारी सोच और व्यवहार बिलकुल बदल जाते है. हिंदी बहुत पीछे देहरी पर खड़ी रह जाती है और हम अंग्रेजी का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ जाते हैं. यह हमारी मानसिकता बन गयी है कि अंग्रेजी में सामान्य वार्तालाप हमारे अभिजात्यपन को दर्शाता है और हमें भीड़ से अलग करता है और इस वर्चस्व को आगे भी बनाये रखने के लिए आवश्यक है की हमारी अगली पीढ़ी भी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करके इस परंपरा को अक्षुण्ण रखे.  हिंदी को हमने एक ऐसी  माँ बना कर रख दिया है जिसका परिचय हम बाह्य जगत को तो बड़े गर्व से कराते हैं लेकिन जिसे अपने घर में अन्दर लाने में हमें शर्म का अनुभव होता है. हमारे इसी दोगलेपन की सजा हिंदी आज भी भुगत रही है और इससे अधिक और शर्म की बात क्या होगी कि आजादी के ७० वर्ष बीत जाने पर भी आज यह विचार विमर्श चल रहा है की हिंदी को कैसे उसका उचित स्थान दिलाया जा सके.

हिंदी के प्रति हमारा यह छद्म प्रेम हमारे दैनिक व्यवहार में पूर्णतः परिलिक्षित हो रहा है. केन्द्रीय सरकार एवं सार्वजनिक बैंकों में सभी कर्मचारियों का हिंदी प्रेम केवल हिंदी पखवाडे के अंतर्गत ही दिखाई देता है.

पिछले कुछ दशकों में बैंकिंग व्यवसाय की सोच में आमूल परिवर्तन हुआ है. बैंकिंग सेवाओं का लक्ष्य केवल एक वर्ग विशेष न रह कर जन-साधारण बन गया और इसके साथ ही बैंकों की भाषागत नीति में बदलाव आने लगा और उनके लिए आवश्यक हो गया कि वे सामान्य व्यक्ति तक उनकी भाषा में सम्प्रेषण करें. सरकार ने सीमांतक किसानों, मज़दूरों और किसानों के आर्थिक विकास के लिए अनेक योजनायें प्रारंभ कीं जिनके कार्यान्वन में बैंकों का एक महत्वपूर्ण स्थान था और बैंकों की शाखाओं का जाल सुदूर गांवों तक फ़ैल गया. इस नए कार्य क्षेत्र में प्रभावी योगदान और सफलता के लिए आवश्यक हो गया कि बैंक अंग्रेज़ी का मोह छोड़ कर स्थानीय भाषाओं को अपनाएं.

आर्थिक भूमंडलीकरण और वैश्विक बाज़ार की अवधारणाओं ने बैंकिंग सेवाओं को नए आयाम दिए हैं. आर्थिक भूमंडलीकरण ने विश्व में राजनीतिक और भोगोलिक सीमाओं को सीमित कर दिया और उसका साक्षात्कार नए नए उत्पादों से कराया. देश में आर्थिक विकास के साथ लोगों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में भी बदलाव आया और उन्हें अपनी क्षमताओं से बढ़ कर अपनी आकंक्षाओं को पूरा करने के लिए बैंकों का आश्रय लेना पड़ा और फलस्वरूप बैंकों को अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार करना पड़ा. ग्राहकों की बढ़ती हुई संख्या और उनकी बढ़ती हुई आकांक्षाओं की पूर्ती के लिए आवश्यक हो गया कि बैंक उन तक उनकी भाषा में पहुचें.

भारत सरकार की राज भाषा नीति के अंतर्गत किये गए प्रयासों ने भी बैंकों में हिंदी के प्रयोग और प्रसार के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है, लेकिन यह भी एक सत्य है कि बैंकों में हिंदी के उपयोग के बारे में उपलब्ध आंकड़े वास्तविकता से बहुत दूर हैं. हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए प्रत्येक बैंक में राज भाषा विभाग हैं लेकिन उनकी सक्रियता केवल हिंदी पखवाड़ा के समय ही दिखाई देती है. सभी परिपत्र अधिकांशतः द्विभाषिक रूप में जारी होते हैं, लेकिन क्या ये परिपत्र मूल रूप से हिंदी में तैयार किये जाते हैं? हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी इनका मूल प्रारूप अंग्रेजी में ही बनता है जिसका बाद में हिंदी अनुवाद कराया जाता है. शब्द कोष की सहायता से अंग्रेजी प्रारूप का शब्दशः अनुवाद केवल क्लिष्ट शब्दों भरा हुआ नीरस अनुवाद बन कर रह जाता है और इसमें मूल की आत्मा और प्रवाह का पूर्णतः अभाव होता है. यह एक वास्तविकता है की इन परिपत्रों को हिंदी में वे कर्मचारी भी नहीं पढ़ते जिनकी मातृ भाषा हिंदी है और उन्हें हिंदी का अच्छा ज्ञान है और यह केवल कागज़ की बरबादी बन कर रह जाता है. ये द्विभाषिक परिपत्र राज भाषा नियमों का अवश्य परिपालन कर देते हैं लेकिन न तो उनका कोई व्यवहारिक उपयोग है और न हिंदी के प्रसार में योग दान. यह उचित है कि नीतिगत परिपत्रों में किसी द्विविधा से बचने के लिए हिंदी के मानक शब्दों का उपयोग हो, लेकिन यह भी आवश्यक है कि ये मानक शब्द सरल और बोधगम्य हों और अनुवाद ऐसा बन कर न रह जाए कि जिसे समझने के लिए अंग्रेजी प्रारूप का आश्रय लेना पड़े. 

सार्वजनिक बैंकों में विभिन्न कार्यों से संबंधित अधिकांश आवेदन पत्र, फॉर्म, चेक आदि द्विभाषिक मुद्रित होते हैं. हिंदी भाषी क्षेत्र में जब किसी व्यक्ति, जो हिंदी में भी निष्णात है, को इस आवेदन पत्र आदि को भरने के लिए दिया जाता है तो अपने स्वभावानुसार उसे अंग्रेजी में भर कर दे देता है. जन साधारण में यह मानसिकता जम कर बैठ गयी है कि वह अगर हिंदी में वार्तालाप करेगा या लिखेगा तो उसे शायद कम शिक्षित की श्रेणी में रखा जायेगा और उसकी ओर उचित ध्यान नहीं दिया जाएगा. यदि हिंदी क्षेत्र में अधिकांश आवेदन पत्र आदि केवल हिंदी में ही मुद्रित हों तो अधिकांश व्यक्ति उन्हें हिंदी में ही भरने लगेंगे और क्रमश यह उनके स्वभाव का हिस्सा बन जायेगा और उसे हिंदी के प्रयोग में किसी हीन भावना का अहसास नहीं होगा. यदि किसी व्यक्ति को अंग्रेजी भाषा में ये प्रलेख चाहिए तो उसे वह प्रदान किये जा सकते हैं. यदि ऐसा किया जाए तो मुद्रण और कागज़ पर किये जाने वाले व्यय में भी बचत की जा सकती है.

 राजभाषा अधिनियम के अंतर्गत सभी ‘क’ क्षेत्रों में हिंदी में कार्य किया जाना चाहिए. आंकड़े चाहे कुछ भी हों लेकिन वास्तविकता यह है कि महानगरों में स्थित बैंक के कार्यालयों में अभी भी अधिकांश कार्य अंग्रेजी में ही होता है. कार्यालयों में टिप्पण या पत्राचार में अंग्रेजी का ही बोलबाला है. कुछ सामान्य कार्य हिंदी में अवश्य कभी कभी किये जाते हों, लेकिन अधिकांश टिप्पण, पत्राचार, ऋण प्रस्तावों का विश्लेषण एवं सांख्यिकीय डेटा का संकलन और विश्लेषण अंग्रेजी में ही किया जाता है. इसके विपरीत बैंकों की हिंदी क्षेत्रों में स्थित शाखाओं में हिंदी का प्रयोग टिप्पण और पत्राचार में बहुलता से किया जाता है, यद्यपि डेटा संसाधन का कार्य अधिकांशतः अंग्रेजी में ही होता है. संभव है कि ग्रामीण और छोटे नगरों की बैंक शाखाओं में पदस्थ कर्मचारी समीप के हिन्दी भाषी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते हों और उन्हें अपने बेहतर हिंदी ज्ञान की वजह से हिंदी में कार्य करना अधिक सुविधाजनक लगता हो. हिंदी भाषी क्षेत्र के भारत सरकार के कार्यालयों की तुलना में सार्वजनिक बैंकों में हिंदी के उपयोग की स्थिति निश्चय ही बेहतर है. इसका प्रमुख कारण यह प्रतीत होता है की बैंकों ने अपने दिन प्रतिदिन के कार्यों/टिप्पण में बोलचाल की हिंदी को, जिसमें अंग्रेजी के शब्द भी सम्मिलित हैं, बहुत सहजता से स्वीकार किया है.

वैश्विक बाजार और भूमंडलीकरण ने प्रौद्योगिक और संचार माध्यमों में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया और भारत का बैंकिंग क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रह सकता था. भारतीय बैंकों ने भी इन नयी तकनीकों को आत्मसात किया लेकिन हिंदी इस दौड़ में उसका पूरा साथ नहीं दे पायी और कुछ पिछड़ गयी. संभव है कि हिंदी को इस प्रौद्योगिक विकास में अभी अपना पूर्ण स्थान बनाने में कुछ समय लगे, लेकिन वर्त्तमान स्थिति इंगित नहीं करती कि ऐसा करने की हमारी आतंरिक इच्छा शक्ति है. उदाहरण के लिए अभी तक सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वेब साईट हिंदी में नहीं है और जिन बैंकों की वेब साईट द्विभाषिक है वहां भी यह एक केवल औपचारिकता लगती है. वेब साईट खोलने पर पहला पृष्ठ अंग्रेजी में खुलता है जिसके एक कोने में हिंदी साईट या हिंदी वेब साईट लिखा होता है जिसको क्लिक करने पर हिंदी में साईट खुल जाती है. कितने लोगों की दृष्टि इस हिंदी वेब साईट की उपलब्धता की और जाती होगी? क्या हिंदी के महत्त्व को दर्शित करने के लिए यह उचित नहीं होता कि वेब साईट का प्रथम/मुख्य पृष्ठ हिंदी में होता और उसके ऊपर अंग्रेजी के पृष्ठ की उपलब्धता के बारे में इंगित होता? जब पहला पृष्ठ अगर अंग्रेजी में ही खुल जाता है तो हिंदी भाषी व्यक्ति को, जो अंग्रेजी का भी ज्ञान रखता है, हिंदी के पृष्ठ पर जाने की उत्कंठा नहीं रहती. इसके अतिरिक्त जब इस वेब साईट के हिंदी पृष्ठ पर अंतर्जाल बैंकिंग सहित किसी भी लिंक्स पर क्लिक किया जाता है तो अगला पृष्ठ अधिकांशतः अंग्रेजी भाषा में ही खुलता है. कई बैंकों के हिंदी पृष्ठ पर अधिकाँश बैंकिंग शब्दावली के अंग्रेजी शब्द केवल देवनागरी में लिख दिए गए हैं. इन्टरनेट बैंकिंग कार्य संपादन(लेन देन) यदि अंत में अंग्रेजी माध्यम से ही करना है तो हिंदी वेब साईट का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देता और केवल एक दिखावा मात्र रह जाता है. संभवतः अंतर्राष्ट्रीय इन्टरनेट कनेक्टिविटी एवं अन्य तकनीकी कारणों  की वजह से इन्टरनेट बैंकिंग में अभी हिंदी का पूर्णतः प्रयोग संभव नहीं हो पाया है.

देश में हिंदी के प्रयोग की वर्त्तमान स्थिति के लिए हम हिंदी भाषी भी कम उत्तरदायी नहीं है.  हिंदी भाषी क्षेत्रों में समस्या यह नहीं कि वे हिंदी का कार्य साधक ज्ञान न होने के कारण हिंदी में कार्य नहीं कर सकते, बल्कि अंग्रेजी का प्रयोग केवल एक मानसिकता बन कर रह गयी है, हिंदी बोलने और हिंदी में कार्य करने में उन्हें एक हीन भावना का अहसास होता है और लगता है की लोग उन्हें कम शिक्षित  न समझें. हम बच्चों को अच्छे से अच्छे अंग्रजी माध्यम स्कूलों में पढ़ाते हैं और गर्व महसूस करते हैं जब वे अंग्रेजी में बात करते हैं और यह परंपरागत सोच ही अंग्रेजी का वर्चस्व बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है. जब अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में अंग्रेजी की शिक्षा हिंदी से पहले शुरू की जाती हो और हिंदी को केवल एक गौण भाषा के रूप में पढाया जाता हो, तब आशा करना कठिन लगता है कि हिंदी कभी अंग्रेजी का स्थान ले पायेगी. अंग्रेजी के ज्ञान और प्रयोग को शिक्षित, कुशल और बुद्धिजीवी होने का पर्याय मानने वाली सोच रखने वाले भूल जाते हैं कि रूस, चीन, जापान ने जो विकास किया है वह अंग्रेजी के सहारे से नहीं बल्कि अपनी भाषा के सम्मान और दैनिक जीवन में प्रयोग से किया है. जब तक हम अपने अस्तित्व की पहचान अंग्रेजी के माध्यम से ढूँढते रहेंगे तब तक हिंदी को हमारे जीवन में उचित और सम्मानजनक स्थान नहीं मिलेगा और वह प्रति वर्ष केवल हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़े तक ही सीमित रह जायेगी. निर्णय हमारे हाथ में है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को अपनी भाषा पर गर्व करने का अवसर देते हैं या नहीं.

...© कैलाश शर्मा 

Tuesday 25 August 2015

क्या सदैव सत्य बोला जा सकता है?

क्या मैं सदैव सत्य बोलता हूँ? बोल पाता हूँ? क्यूँ ? एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर आसान भी है और बहुत कठिन भी. बहुत आसान है यह कहना कि जिसे मेरा मन या अंतरात्मा सच मानता है उसे मैं बिना किसी भय या परिणाम की चिंता किये स्पष्ट कह देता हूँ, क्यूँ कि ऐसा करने से मेरे मन को संतुष्टि मिलती है. लेकिन क्या यह सत्य जिसे मेरा मन सत्य मानता है, वास्तव में सम्पूर्ण और सार्वभौमिक सत्य है? क्या मेरी अंतरात्मा इतनी निर्मल और निर्पेक्ष है कि वह सत्य का मूल्यांकन कर सकती है? क्या मेरी शिक्षा, संस्कार, ज्ञान-संचय, आसपास के वातावरण, जीवन अनुभवों आदि ने मेरी आत्मा को अपने आवरण से नहीं ढक रखा है, जिससे मेरा सत्य का मूल्यांकन व्यक्तिगत, सापेक्ष हो गया है और इसको मैं शाश्वत सत्य कैसे मन लूँ? फिर मैं कैसे कैसे कह दूँ कि मैं हमेशा सत्य बोलता हूँ.

सत्य क्या है एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर बहुत कठिन है. मैं जो आँखों से देखता हूँ, कानों से सुनता हूँ वह केवल मेरा सापेक्ष, व्यक्तिगत, अर्ध सत्य है. मैंने जो देखा है उससे परे भी उस घटना के पीछे कोई सत्य छुपा हो सकता है जिससे मैं अनभिज्ञ हूँ. इस लिए मेरा देखा सुना सत्य कैसे सम्पूर्ण, सार्वभौमिक सत्य हो सकता है? हम वस्तुओं और घटनाओं को उस तरह नहीं देखते जैसी वे हैं, बल्कि उस तरह जैसा हम देखना चाहते हैं. प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है. भारतीय दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही परम सत्य है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता. अपनी आत्मा को उस परम आत्मा से आत्मसात करके और उसमें स्वयं को समाहित करके ही उस निर्पेक्ष परम सत्य का अनुभव कर सकते हैं. लेकिन इस सत्य का दर्शन और पालन एक साधारण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है. महात्मा गाँधी ने कहा था सत्य की खोज के साधन जितने कठिन हैं, उतने ही आसान भी हैं। अहंकारी व्यक्ति को वे काफी कठिन लग सकते हैं और अबोध शिशु को पर्याप्त सरल।

हमें बचपन से सिखाया जाता है "सत्यम् ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम् अप्रियं", लेकिन सत्य अधिकांशतः कड़वा होता है और अगर उसे प्रिय बनाना पड़े तो फिर वह सत्य कहाँ रहेगा, अधिक से अधिक उसे चासनी में पगा अर्ध सत्य कह सकते हैं. अगर सत्य अप्रिय है तो उसे न कहना क्या सत्य का गला घोटना नहीं है? अप्रिय सत्य कहने के स्थान पर अगर मौन का दामन थाम लिया जाय तो क्या यह असत्य का साथ देना नहीं होगा? ऐसे हालात में क्या किया जाए? आज के समय जब चारों ओर स्वार्थ और असत्य का राज्य है, कैसे एक व्यक्ति केवल सत्य के सहारे जीवन में आगे बढ़ सकता है? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कुछ पल की खुशी के लिए असत्य को अपना लिया जाये. सत्य बोलना आसान है क्यों कि आपको याद नहीं रखना होता कि आपने पहले क्या कहा था, लेकिन एक बार झूठ बोलने पर उस झूठ को छुपाने के लिए न जाने कितने झूठ बोलने पड़ते हैं.

अपने व्यक्तिगत और कार्य क्षेत्र पर जब दृष्टिपात करता हूँ तो मेरे लिए यह कहना बहुत कठिन होगा कि मैंने सदैव सत्य ही बोला या नहीं, लेकिन इतना अवश्य कहूँगा कि मैंने अपने कार्यों और निर्णयों में निस्संकोच और बिना किसी डर के वही निर्णय लिया जो मेरी अंतरात्मा ने तथ्यों के आधार पर सही माना और अपने आप को और अपनी अंतरात्मा को कभी धोखा नहीं दिया. अपने व्यक्तिगत और कार्य क्षेत्र में सदैव कोशिश की कि ऐसा कोई कार्य न करूँ जिसे मेरी आत्मा सही स्वीकार नहीं करती. किसी को अपने शब्दों से चोट न पहुंचे इस लिए कई बार सत्य कहने की बजाय मौन का दामन थाम लिया. किसी को कुछ पल की खुशी देने के लिए असत्य का सहारा लेना मेरे लिये संभव नहीं, और न ही ऐसे अप्रिय सत्य को कहना जिससे किसी को दुःख पहुंचे. यह मेरा सत्य है और यह सत्य है या असत्य इसका निर्णय मैं भविष्य पर छोड़ता हूँ. सार्वभौमिक और शाश्वत सत्य की मंजिल अभी बहुत दूर है और जब सब अपने अपने सत्य के साथ जी रहे हैं, ऐसे हालात में मैं कैसे कहूँ कि सदैव सत्य बोला जा सकता है.


....©कैलाश शर्मा 

Tuesday 14 April 2015

एक सिक्का, दो पहलू (लघु-कथा)

अप्रैल माह रविवार की एक भीगी भीगी सी सुबह थी. खिड़की से बाहर झांकती सुमन बोली ‘रमेश, बाहर देखो कितना सुहावना मौसम है. रात भर ओले और तेज बारिस के बाद बाहर कितना अच्छा मौसम हो गया है. बहुत दिन हो गए गर्मी में घर में बैठे बैठे. चलिए कहीं पिकनिक पर चलते हैं बच्चों के साथ.’

‘ठीक है सुमन. तुम बच्चों को भी तैयार कर लो. पहले लम्बी ड्राइव पर चलेंगे और किसी रिसोर्ट में लंच करेंगे.’ बिस्तर से उठते हुए रमेश बोला.

‘जी, आज सारा दिन बाहर ही गुजारेंगे और रात को पिक्चर देख कर और बाहर ही खाना खा कर आयेंगे.’ सुमन ने रमेश के गले लगते हुए कहा और गुनगुनाते हुए कमरे से बाहर निकल गयी.
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रात भर तेज बारिस और कड़कती बिजली का शोर श्यामू के मन को दहलाता रहा. खपरैल की छत पर ओलों के गिरने की तीव्र आवाज़ सर पर पत्थर की चोट जैसी लग रह थी. रात भर वह अप्रैल के महीने में बे-मौसम बरसात और खेतों में खड़ी फसल के बारे में सोच कर सो नहीं पाया. कई बार खेतों में जाने की सोचा, लेकिन बारिस की तीव्रता को देख कर वह मन मसोस कर रह गया. सुबह उठते ही बाहर आकर देखा तो बादल साफ़ थे और वह पत्नी की नास्ते के लिए आवाज़ अनसुनी करके खेतों की ओर भागा. ओले और तेज बारिस से नीचे जमीन पर पड़े गेहूँ की बालियों को देख कर उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं. अपने खेत में गेहूँ की कल तक लहलहाती बालियों को आज जमीन पर गिरी देख उसकी आँखों के सामने साहूकार, भूखे बच्चों और शादी के योग्य बेटी कमला की सूरत तैरने लगी. बेमौसम बरसात से अपने सपनों को जमीन पर कुचला पड़ा देख उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और वह अपने सीने को पकड़ कर जमीन में लेटी हुई गेहूँ की बालियों पर बेजान हो गिर पड़ा. उसकी खुली आँखें एकटक खोज रहीं थीं आसमान के गर्भ में छुपे बेमौसम काले बादलों को.   

...कैलाश शर्मा                     

Wednesday 30 July 2014

नारी सम्मान और हम

जब दामिनी के साथ घटे वीभत्स कृत्य पर सारा देश आक्रोश से उबला तो एक आशा जगी थी कि देश में स्त्रियों के प्रति हो रहे अपराधों के प्रति व्यवस्था और जनता जागरूक होगी और इन अपराधों में कमी आयेगी. लेकिन क़ानून में बदलाव और सुधार के बाद भी आज भी प्रतिदिन इन घटनाओं में कोई कमी नहीं दिखाई दे रही. जनता की जागरूकता, कड़े कानून, शीघ्र अदालती निर्णयों की व्यवस्था और पुलिस की सतर्कता के वाबजूद लगता है इन वहशियों को कोई डर नहीं, वर्ना इस आक्रोश और बदलाव का कुछ तो असर इन पर होता.

सबसे दुखद और चिंता की बात तो यह है कि आजकल बलात्कार और अन्य अपराधों में लिप्त होने में किशोरों की संख्या बढ़ती जा रही है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के द्वारा जारी २०१३ के आंकड़ों के अनुसार २०१३ में बलात्कार के अपराधों में किशोर अपराधियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई और अपराधों में लिप्त अधिकांश किशोरों की उम्र १६ से १८ के बीच थी. प्रतिदिन समाचार पत्र इस तरह की खबरों से अब भी भरे रहते हैं.

आवश्यकता है विचार करने की कि स्त्रियों के प्रति हो रहे विभिन्न अपराधों का मूल कारण क्या है. क्यों समाज में आक्रोश और कठोर दंड व्यवस्था के होने पर भी बलात्कार और स्त्रियों के प्रति अपराधों में कोई कमी नहीं आ रही? क्यों लड़कियां घर के अन्दर या बाहर अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं? स्त्रियों के प्रति अपराधों में पुलिस और व्यवस्था की सतर्कता एवं त्वरित और कठोर न्याय व्यवस्था अपनी जगह ज़रूरी है, लेकिन केवल इनके भय से ही ये अपराध नहीं रोके जा सकते. आवश्यकता है आज हमारे समाज को स्त्रियों के प्रति अपनी सोच पर पुनर्विचार करने की.

हमारे पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को एक दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा जाता है. अधिकांश घरों में पुरुष ही प्रधान है और उसका सही या गलत निर्णय ही सर्वोपरि होता है, जिसका विरोध करने का अधिकार स्त्रियों को नहीं होता. जिन परिवारों में महिलाएं आर्थिक रूप से समर्थ हैं वहां भी उन्हें बराबर का दर्ज़ा नहीं मिलता और प्रमुख पारिवारिक निर्णयों में उनकी राय को कोई महत्व नहीं दिया जाता. यह परंपरा परिवार में आगे चलती रहती है. हमारे परिवारों में आज भी बेटे को बेटी से अधिक महत्व दिया जाता है. बेटे की हर इच्छा पहले पूरी की जाती है और उसकी गलतियों को भी यह कह कर नज़रंदाज़ कर दिया जाता है कि लड़का है बड़ा होकर सब ठीक हो जाएगा. दूसरी ओर बेटियों को हमेशा यह याद दिलाया जाता है कि उन्हें दूसरे घर में जाना है और उन्हें ऐसा कोई कार्य नहीं करना है जिससे घर की बदनामी हो और उनके प्रत्येक कार्य पर निगरानी रखी जाती है. परिवार का लड़का जब इस वातावरण में बड़ा होता है तो उसके मष्तिष्क में यह बात मज़बूत होने लगती है कि वह विशेष है. जिस तरह पिता घर में प्रमुख है और उनकी गलतियों पर कोई उंगली नहीं उठा सकता, उसी तरह वह भी लड़का है और उसकी सभी गलतियाँ क्षम्य हैं.

जब लड़का पिता को घर में शराब पीकर बच्चों के सामने माँ को पीटता हुआ देखता है और माँ के समर्थन में परिवार का कोई सदस्य नहीं खड़ा होता तो लड़के के मष्तिष्क में यह बात बैठने लगती है कि पिता जो कर रहा है वह स्वाभाविक है और यह उसका पुरुष होने का अधिकार है और जब वह बड़ा होने लगता है तो उन्ही पद चिन्हों पर चलने लगता है. प्रत्येक लड़की उसके लिए सिर्फ़ एक वस्तु बन कर रह जाती है जिसका उपयोग करना वह अपना अधिकार समझने लगता है. लड़कियों की इज्ज़त और सम्मान करना एवं उनसे एक स्वस्थ सम्बन्ध रखना उसके लिए एक अनज़ान सोच होती है. इस सोच के चलते छोटी उम्र में ही लड़कियों के साथ छेड़ छाड़ और दुर्व्यवहार उसको स्वाभाविक लगते हैं और उसके मन में अपराध बोध की कोई भावना नहीं जगती और यही कारण है कि आजकल स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार के केसों में किशोरों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है.

केवल कठोर क़ानून या दंड व्यवस्था से इस समस्या का स्थायी हल संभव नहीं. परिवार समाज की वह इकाई है जहाँ बच्चों में संस्कार व आचरण की नींव पड़ती है. अगर हमें अपनी अगली पीढ़ी और बच्चों को अपराधों की दुनिया से दूर रखना है तो इसकी शुरुआत हमें पहले अपने घरों से करनी होगी. जरूरी है हमें स्त्रियों के प्रति अपनी सोच और व्यवहार बदलने की. अगर हम हम स्वयं घर की स्त्रियों माँ, पत्नी, बेटी को उनका सम्मान और हक़ देने लगें तो घर के बच्चों पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा और बचपन से ही वह माँ, बहन एवं अन्य लड़कियों के प्रति इज्ज़त और सम्मान का भाव रखने लगेंगे. अगर घर में स्वस्थ और खुशहाल वातावरण है तो निश्चय ही इसका प्रभाव बच्चों पर भी पड़ेगा और वे एक स्वस्थ सोच के साथ जीवन में आगे बढ़ेंगे.

संयुक्त परिवारों में घर के बुज़ुर्ग बच्चों को सही आचरण की शिक्षा के द्वारा उनको सही रास्ते पर चलने में मार्गदर्शन करते थे. लेकिन संयुक्त परिवारों के बढ़ते हुए विघटन के बाद आज माता पिता को अपनी अपनी व्यस्तताओं के चलते हुए बच्चों के साथ सार्थक समय व्यतीत करने का समय नहीं होता और अधिकांश परिवारों में बच्चों को व्यस्त रखने के लिए छोटे बच्चों के हाथों में ही मोबाइल और लैपटॉप पकड़ा देते हैं जिनमें वे अपनी पसंद के खेलों में व्यस्त रहते हैं और वे यह भी नहीं देखते कि बच्चे क्या देख रहे हैं, क्या खेल रहे हैं. उनको सद आचरण, संस्कारों के बारे में बताने के लिए समय देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.

इस तरह के वातावरण में पले बच्चे, नियंत्रण एवं मार्गदर्शन के अभाव में, जब घर से बाहर किसी गलत संगत में पड जाते हैं तो बहुत शीघ्र गलत संगत से प्रभावित हो जाते हैं. यहीं से प्रारंभ हो जाता है उनका पहला कदम अपराध की दुनिया में और सही मार्ग दर्शन के अभाव में बड़े अपराधों की दुनिया में कदम रखने में देर नहीं लगती.

अगर हमें अपनी युवा पीढ़ी को अपराध की दुनिया से बचाना है तो उनके सुखद भविष्य के लिए इसकी शुरुआत हमें सबसे पहले अपने घर से ही करनी होगी. हमें स्वयं घर में माँ, पत्नी, बहन, बेटी आदि को उचित सम्मान दे कर बच्चों के सामने एक सार्थक उदाहरण रखना होगा जिस पर वह आगे चल सकें. लड़के और लड़कियों को समान प्यार, सम्मान और मार्ग दर्शन देना होगा. केवल क़ानून व्यवस्था को दोष देने से काम नहीं चलेगा, इसकी शुरुआत हमें स्वयं अपने घर से करनी होगी.

...कैलाश शर्मा


Friday 18 April 2014

“परछाइयों के उजाले” – आईना ज़िंदगी का

कविता वर्मा जी के कहानी लेखन से पहले से ही परिचय है और उनकी लिखी कहानियां सदैव प्रभावित करती रही हैं. उनका पहला कहानी संग्रह “परछाइयों के उजाले” हाथ में आने पर बहुत खुशी हुई. पुस्तक को एक बार पढ़ना शुरू किया तो प्रत्येक कहानी अपने साथ भावों की सरिता में बहा कर ले गयी. ज़मीन से जुड़ी कहानियों के कथ्य, पात्र और भाव अपने से लगते हैं और अहसास होता है कि जैसे अपने घर आँगन में पसरे हुए हालात, कमरे की खिड़की से झांकते हुए आस पडौस की दुनियां को देख रहे हैं. जीवन के विभिन्न आयाम कहीं नारी मन की व्यथा, अंतर्द्वंद और उसका आत्म-विश्वास, कहीं रिश्तों के दंश तो कहीं प्रेम के विभिन्न अहसास कहानियों में प्रखरता से उभर कर आये हैं. समाज के अभिजात्य, मध्यम एवं पिछड़े वर्गों की वेदना और मज़बूरी को लेखिका ने बहुत प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है. कहानियों का कथ्य व शैली किसी भी वाद से परे है और कहानियां केवल कहानियां हैं – जीवन के यथार्थ का दर्पण - और यही विशेषता पाठक को कहानियों से अंत तक बांधे रखती है. कहानियों का शिल्प व भाषा सहज और सरल है और अंत तक रोचकता बनाये रखने में सक्षम है.

‘एक नयी शुरुवात’ की स्नेह और ‘जीवट’ की फुलवा आत्म-विश्वास से परिपूर्ण ऐसी नायिका हैं जो किसी भी हालात का जीवट से सामना कर सकती हैं. समृद्ध परिवार की स्नेह एक तरफ़ अपनी भावनाओं और प्रेम के लिए अपने परिवार से संघर्ष को तैयार हो जाती है वहीँ वह एक व्यावहारिक सोच का सहारा लेकर ऐसा निर्णय लेती है जो उसके जीवन की दिशा ही बदल देता है. फुलवा एक  गरीब पिछड़े वर्ग की एक प्रतिनिधि पात्र है जो स्वयं मेहनत मज़दूरी कर के घर का खर्चा चलाती है लेकिन जब उसके स्वाभिमान और ममता को चोट लगती है तो वह एक निर्णय लेती है ‘मुझे किसी के सहारे की क्या जरूरत है औरत हूँ तो क्या?’. यही आत्म-विश्वास और व्यावहारिकता ही दोनों कहानियों का सशक्त पक्ष है.

कितना आसान होता है रिश्तों को सगों और सौतेलों की परिभाषाओं से बाँट देना. सम्पत्ति के बंटवारे की आशंका से स्नेह के रिश्तों पर भी सौतेलेपन की धूल जमने लगती है और निस्वार्थ स्नेह को भी आशंका की दृष्टि से देखा जाने लगता है. संपत्ति के लालच में सौतेले संबंधों के स्नेह पर संदेह करना जब कि अपना खून भी आज कल संपत्ति के लालच से परे नहीं है , इन्ही सब प्रश्नों से जूझती कहानी ‘सगा सौतेला’ आज के बदलते रिश्तों की सच्चाई को बहुत संवेदनशीलता से चित्रित करती है.

व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए किस तरह एक गरीब की मज़बूरी और परेशानियों का किस हद तक भावनात्मक शोषण कर सकता है इसकी प्रभावी अभिव्यक्ति है कहानी ‘निश्चय’. मालकिन रेनू के अहसानों से दबी मंगला के सामने जब उसकी सहायता के पीछे रेनू का स्वार्थ और दोगलापन स्पष्ट हो जाता है तो वह निश्चय लेने में एक पल की देर नहीं करती. समाज में व्याप्त स्वार्थ और दोगलेपन को लेखिका ने इस कहानी में बहुत गहराई से रेखांकित किया है.

‘पुकार’ एक ऐसी भावपूर्ण कहानी है जिसका प्रस्तुतिकरण इतना स्वाभाविक और सहज है कि लगता नहीं कि आप कोई कहानी पढ़ रहे हैं. एक एक शब्द भावों का समंदर है. कहानी का अंत अन्दर तक झकझोर देता है.

अगर एक माँ एक बच्चे को पीटती है तो यह उसका अधिकार समझा जाता है, लेकिन एक निस्संतान स्त्री अगर उस बच्चे को जिसे वह अपने पुत्र की तरह पालती है और उसमें अच्छी आदतें डालने के लिए सख्ती करती है तो उसे अत्याचार समझा जाता है और सभी उंगलियाँ उसकी ओर उठने लगती हैं. एक निस्संतान स्त्री का दर्द ‘लकीर’ कहानी में बहुत शिद्दत और मार्मिकता से उभर कर आया है.

पुरुष प्रधान समाज में विशेषकर ग्रामीण परिवेश में जब स्त्री पर घर के सदस्य की ही कुदृष्टि हो उस स्त्री की मनोदशा को ‘आवरण’ कहानी में बड़े प्रभावी ढंग से उकेरा है. एक असहाय स्त्री को जब एक दूसरी असहाय सी प्रतीत होने वाली जेठानी का सहारा मिल जाता है तो वह हरेक हालात से मुकाबला करने को खड़ी हो जाती है. सुकुमा और उसकी जेठानी का चरित्र चित्रण कहानी का एक सशक्त पक्ष है.

‘एक खालीपन की नायिका’ माया एक आज की नारी है जिसने अपनी माँ को सदैव पिता के डर के तले जीते देखा. लेकिन माया की सोच है ‘क्यों किसी के लिए जिए जिन्दगी? क्या मिलेगा इस तरह अपनी जिन्दगी किसी और के पास गिरवी रख कर?’ नारी का स्वाभिमान पुरुष के अहम् को सहन नहीं होता और वह चाहता है कि नारी अपना अस्तित्व भूल कर उसके अहम् को पोषित करे. माया को यह स्वीकार नहीं कि वह किसी के अहम् को संतुष्ट करते करते खुद चुक जाए, अकेलेपन के ‘खालीपन में कम से कम वह खुद के साथ तो है.’ माया के मानसिक द्वन्द को कहानी में बहुत ही प्रभावी ढंग से उकेरा गया है. यह कहानी केवल माया की कहानी नहीं बल्कि प्रत्येक उस नारी के मानसिक संघर्ष की कहानी है जो अपने अस्तित्व और स्वाभिमान को किसी के पैरों तले कुचलता नहीं देख सकती.

परिवार में या समाज में जब कमजोर व्यक्ति आगे बढ़ने और अपना अस्तित्व व वर्चस्व बनाने की कोशिश करता है तो परिवार के सदस्यों या समाज के चौधरियों को अपनी स्थापित प्रतिष्ठा डगमगाती दिखाई देने लगती है और फिर होता है प्रयत्न उसको नीचा दिखाने का. ‘दलित ग्रंथी’ कहानी में इसी संघर्ष को बहुत प्रभावी रूप में उजागर किया है. कहानी के चरित्र अपने से और जीवंत लगते हैं और यही कहानी का सबसे बड़ा आकर्षण है.

‘डर’ और ‘पहचान’ ऐसी समसामयिक कहानियां हैं जो बिल्कुल स्वाभाविक और विश्वसनीय लगती हैं. जब नारी को अपनों के द्वारा ही छला जाये तो वह अपने आप को कितनी कमजोर और लाचार पाती है, लेकिन अगर उसे सही समय पर सहारा और मार्गदर्शन मिल जाए तो वह किसी भी मुसीबत का सामना कर सकती है. ‘डर’ की नायिका को जब आंटी जी का सहारा मिल जाता है तो वह सब डर भूल कर परिस्थितियों का सामना करने को तैयार हो जाती है. ‘पहचान’ की वेदिका पति की मृत्यु के बाद जब अपने आप को अपनों के बीच अजनबी पाती है और टूट जाती है तो राधिका और आशा उसका हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हैं और उनके सहारे और अपने साहस से वह अपनी एक ऐसी पहचान बना पाती है जिसके सामने सब नत मस्तक हो जाते हैं. दोनों कहानियां अंतस को गहराई तक छू जाती हैं.

‘परछाइयों के उजाले’ स्त्री मन की भावनाओं को समझने का एक बहुत गहन प्रयास है. स्त्री पुरुष के बीच केवल शारीरिक संबंध ही नहीं होता, उनके बीच दोस्ती का भावनात्मक लगाव भी हो सकता है, लेकिन इसे समाज सदैव शक़ की नज़रों से देखता है. उम्र के ढलते पड़ाव में भी किसी पर-पुरुष के सानिध्य में भावनात्मक ख़ुशी का अहसास करने में भी समाज का डर नारी जीवन का एक ऐसा दर्द है जिसे कहानी में बहुत ही संवेदनशीलता से उकेरा है.

जीवन के इर्द गिर्द घूमती कहानियां पाठक को अंत तक अपने साथ बांधे रखती हैं. एक पठनीय और संग्रहणीय कहानी संग्रह के लिये लेखिका बधाई की पात्र हैं. विश्वास है कि कविता जी की लेखनी से ऐसे कहानी संग्रह आगे भी पढ़ने को मिलते रहेंगे. पुस्तक प्राप्ति के लिए कविता वर्मा जी से E-mail ID kvtverma27@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

पृष्ठ  : 142
मूल्य : Rs.150/-
प्रकाशक : मानव संस्कृति प्रकाशन, इंदौर


.....कैलाश शर्मा 

Friday 28 February 2014

“ एक थी माया” – कहानी संग्रह

श्री विजय कुमार जी का कहानी संग्रह ‘एक थी माया’ हाथ में आते ही उसके आवरण ने मंत्र मुग्ध कर एक माया लोक में पहुंचा दिया. जब मैं पुस्तक के पृष्ठ पलट ही रहा था कि मेरी धर्म पत्नी जी मेरे हाथ से पुस्तक लेकर देखने लगीं और बोलीं कि विजय जी की नयी पुस्तक है. मुझे विश्वास था कि उन्हें लम्बी कहानियां पढ़ने का धैर्य नहीं है और उनकी रूचि केवल कविताओं और लघु कथाओं तक ही सीमित है, इसलिए पुस्तक शीघ्र ही मेरे हाथों में वापिस आ जायेगी. लेकिन जब वे पृष्ठ पलटना बंद करके कहानियाँ पढ़ने लगीं तो मुझे आश्चर्य हुआ, लेकिन सोचा कुछ पृष्ठ पढ़ कर अपने आप वापिस कर देंगी. जब एक घंटे तक पुस्तक नहीं मिली तो मैंने उनसे वह पुस्तक माँगी तो उन्होंने कहा कि मैं पढ़ कर ही दूंगी. यद्यपि मैं विजय जी कि कुछ कहानियों से पहले से ही वाकिफ़ था लेकिन जब उन्होंने पूरी पुस्तक पढ़ कर मुझे वापिस दी तो मुझे विश्वास हो गया कि इस कहानी संग्रह की कहानियों में अवश्य कुछ ऐसा है जो किसी को भी अपनी और आकर्षित करने की क्षमता रखता है.

विजय जी की कहानियां एक वृहद कैनवास पर जीवन के विभिन्न आयामों को अनेक रंगों में चित्रित करती हैं जिसमें रूहानी प्रेम का रंग सबसे प्रमुख है. कहानियों को पढ़ते हुए भूल जाते हैं कि कहानी में जीवन है या जीवन में कहानी है. कहानी के चरित्रों से पाठक पूरी तरह आत्मसात हो जाता है और कई बार लगता है कि यह तो मेरी कहानी है और यह किसी भी कहानी की सफलता का सशक्त मापदंड है. सभी कहानियों का कथ्य, शैली, चरित्र चित्रण, और कथा विन्यास सबसे सशक्त पक्ष है.

एक आम आदमी की अभावग्रस्त ज़िंदगी के छोटे छोटे मासूम अहसास और देह से परे निश्छल अनुभूतियाँ, प्रेम और जीवन की आधारभूत ज़रूरतों के बीच संघर्ष और दोनों के बीच पिसता इंसान और उसकी भावनाओं का एक मर्मस्पर्शी चित्रण है ‘एक थी माया’. शरीर से परे भी एक प्रेम है और मिलन ही प्रेम का अंतिम उद्देश्य नहीं, इसे माया ने बहुत गहराई से समझा है “ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं तुम्हें याद नहीं करती हूँ, पर तुम नहीं होकर भी मेरे पास ही रहते हो.”

‘मुसाफ़िर’ एक छोटी सी कहानी जीवन में प्रेम से बिछुड़ने और मिलन के लम्बे इंतजार की ऐसी मर्मस्पर्शी कहानी है जिसका अंत आँखें नम कर जाता है.

जब नारी के असंतुष्ट विवाहित जीवन में उसका अतीत फिर से जीवंत हो कर आ जाता है और वह निश्चय नहीं कर पाती की घर की देहरी पार करे या नहीं, उसके मानसिक संघर्ष को चित्रित करती ‘आठवीं सीढ़ी’ एक सशक्त कहानी है. एक लम्बी कहानी होते हुए भी लेखक की चरित्रों, कथानक और भावनाओं पर पकड़ इतनी मज़बूत है कि कहानी कहीं भी उबाऊ नहीं हो पाई और अंत तक पाठक की रोचकता बनी रहती है. नायिका के अतीत के साथ जुड़ने और वर्तमान हालात से असंतुष्टि के बीच मानसिक संघर्ष का जो उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक चित्रण है वह कहानी का सबसे सशक्त पक्ष है. यहाँ भी प्रेम का रूहानी पक्ष प्रखरता से उभर कर आया है. “प्रेम का कैनवास बहुत बड़ा होता है, उसे जीना आना चाहिए, न कि ज़िंदगी में उसकी कमी से भागना. यही सच्चा प्रेम है और इसी को ईश्वरीय प्रेम कहते हैं...”

प्रेम में हर बार चोट खाने पर भी अपने स्वाभिमान को बरकरार रख कर जीने की कोशिश और प्रेम की तलाश है एक भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी कहानी ‘आबार एशो’. “श्रीकांत बहुत देर तक उसे देखता रहा. फिर धीरे से कहा, ‘तुम बहुत बरस पहले मुझसे नहीं मिल सकती थीं, अनिमा?’ अनिमा ने कहा, ‘ज़िंदगी के अपने फैसले होते हैं, श्रीकांत.’ ’’ शायद यही ज़िंदगी का सबसे बड़ा सत्य है.

ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि पर एक विश्वसनीय कहानी लिखना और उस समय का वातावरण, भाषा, रहन सहन, लोकाचार एवं चरित्रों को जीवंत करना एक आसान कार्य नहीं है. लेकिन कहानीकार अपनी कहानी ‘आसक्ति से विरक्ति की ओर’ में इसमें पूर्ण सफल रहा है. बुद्धकालीन प्रष्ठभूमि में लिखी कहानी में बुद्ध के संदेशों को न केवल आत्मसात किया है बल्कि उन्हें बहुत गहनता से कहानी में इस कुशलता से ढाला है कि वह कहानी का ही एक अभिन्न अंग बन गए हैं.
“बुद्ध ने आगे कहा, ‘हम अपने विचारों से ही स्वयं को अच्छी तरह ढालते हैं; हम वही बनते हैं जो हम सोचते हैं, जब मन पवित्र होता है तो ख़ुशी परछाई की तरह हमेशा हमारे साथ चलती है, सत्य के रास्ते पर चलने वाला मनुष्य कोई दो ही ग़लतियाँ कर सकता है, या तो वह पूरा सफ़र तय नहीं करता या सफ़र की शुरुआत ही नहीं करता, मनुष्य का दिमाग ही सब कुछ है, जो वह सोचता है वही बनता है, और यही सच्चा सन्यास है.’ “

आधुनिकता और भौतिक सम्रद्धि के पीछे भागते युग में अकेलेपन की त्रासदी झेलती बुजुर्गों की कहानी ‘चमनलाल की मौत’ केवल एक कहानी नहीं बल्कि ऐसी कटु सच्चाई है जो हर रोज़ हम अपने आस पास देखते हैं. आधुनिक पीढ़ी द्वारा दिया अकेलेपन का दंश झेलते जाने कितने बुज़ुर्ग एक पल के प्यार को तरसते हैं अपने ज़िन्दगी के अंतिम पल तक. “ ...लेकिन यह कोई नहीं समझ पाता कि हम बूढों को पैसे से ज्यादा प्यार चाहिए. अपनों का अपनापन चाहिए. हमें ज़िंदगी नहीं मारती; बल्कि एकांत ही मार देता है.” आज के कटु सत्य को दर्शाती कहानी आँखों को नम कर जाती है.

प्रसिद्धि और नाम पाने के लिए व्यक्ति क्या क्या कर सकता है इस पर ‘अटेंशन’ एक बहुत सटीक और रोचक व्यंग है और इस बात का सबूत है कि विजय जी केवल गंभीर कहानी लिखने में ही कुशल नहीं हैं, वे व्यंग के भी सिद्धहस्त चित्रकार हैं.

‘टिटलागढ की एक रात’ कहानी में कहानीकार ने भय, रोमांच, सस्पेंस के वातावरण का कुशलता से ऐसा ताना बुना बुना है कि आप कहानी के प्रवाह के साथ बहते चले जाते हैं और आपकी तर्क शक्ति और व्यक्तिगत सोच बिल्कुल कुंद हो जाती है. कहानी ‘willing suspension of disbelief’ का एक उत्कृष्ट उदाहरण है.

जब दाम्पत्य जीवन में शक का कीड़ा सर उठाने लगे तो तो उसके परिणाम कितने दुखद हो सकते हैं इसको बहुत मार्मिक रूप से प्रस्तुत करती है कहानी ‘दी परफ़ेक्ट मर्डर’. दाम्पत्य जीवन परस्पर विश्वास के धागे में बंधा होता है और जब यह धागा टूट जाता है तो समय निकल जाने पर पश्चाताप करने के लिए भी अवसर नहीं मिलता. कहानी का प्रस्तुतिकरण बहुत प्रभावी और मर्मस्पर्शी है.

‘मैन इन यूनिफ़ॉर्म’ एक सैनिक के दिल के दर्द की कहानी है जो देश के लिए अपनी जान दे देता है लेकिन कुछ नहीं बदलता न देश में न लोगों की सोच में. सटीक प्रश्न, क्या है एक जवान की शहादत की कीमत, उठाती और अंतस को आंदोलित करती एक सशक्त कहानी.

लेखक की कथानक, चरित्रों, भावों और प्रस्तुतीकरण पर पकड़ बहुत मज़बूत है और किसी भी कहानी का कला या भाव पक्ष कमजोर नहीं पड़ता. लेखक का यह प्रथम कहानी संग्रह है और विश्वास है कि उनकी कलम से ऐसे नायाब उपहार पाठकों को मिलते रहेंगे.

ख़ूबसूरत आवरण और उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए प्रकाशक बधाई के पात्र हैं. १५९ पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य है रु.२५० जिसे प्राप्त करने के लिए लेखक से संपर्क किया जा सकता है.

विजय कुमार,
मोबाइल : 09849746500

ईमेल : vksappatti@gmail.com

Tuesday 15 May 2012

किशोरों में बढ़ती अपराध प्रवृति

समाचार पत्रों में सुबह सुबह हमारे किशोरों की गंभीर अपराधों में शामिल होने की खबरें जब अक्सर देखता हूँ तो पढ़ कर मन क्षुब्ध हो जाता है. कुछ दिन पहले समाचार पत्रों में खबर थी कि चार किशोरों ने कक्षा से १२ साल के लडके को बाहर खींच कर निकाला और चाकुओं से उसे घायल कर दिया. उसका कसूर केवल इतना था कि उसने कुछ दिन पहले अपने साथ पढने वाली मित्र को उनके दुर्व्यवहार से बचाया था. इसी तरह की एक घटना में एक किशोर ने अपने साथी का इस लिये खून कर दिया क्यों कि उसे शक था कि उसने उस पर काला जादू किया है. कुछ समय पहले एक और दिल दहलाने वाली खबर पढ़ी कि एक १५ साल के किशोर ने अपनी पडौस की महिला से ५० रुपये उधार लिये थे और जब उस महिला ने यह बात उसकी माँ को बता दी तो उसे इतना क्रोध आया कि उसने उसके घर जा कर उस महिला पर चाकू से हमला कर दिया और जब उसकी चीख सुन कर पडौस की दो महिलायें बचाने के लिये आयीं तो उसने उन पर भी हमला कर दिया और तीनों महिलाओं की मौत हो गयी. एक छोटी जगह की इसी तरह की एक खबर और पढ़ी थी कि स्कूल से अपने साथी के साथ लौटते हुए एक लडकी को उसके साथ पढने वाले ४,५ साथियों ने रास्ते में रोक कर लडकी के साथ सामूहिक बलात्कार किया. अपने ही साथ पढ़ने वाले साथी का फिरौती के लिये अपहरण और हत्या के कई मामले समाचारों में आये हैं. बलात्कार, लूट, वाहन चोरी, जेब काटना, चोरी करने आदि के समाचार तो बहुत आम हो गये हैं. छोटी उम्र से शराब और ड्रग्स का प्रयोग एक सामान्य शौक बन गया है. आज के किशोरों का व्यवहार देख कर समझ नहीं आता कि इस देश की अगली पीढ़ी का क्या होगा.

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