Tuesday, 22 November 2011

हमारी सम्वेदना और सहनशीलता क्यों मर रही हैं ?


     बचपन से हमें सिखाया जाता रहा है कि संवेदनशीलता और सहनशीलता सफल जीवन के मूल मन्त्र हैं. हमारे सभी प्राचीन ग्रन्थ और सभी धर्म सहनशीलता और सहअस्तित्व का महत्व बताते रहे हैं. लेकिन आज हम जब अपने चारों ओर नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि हम अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक जीवन में कितने असंवेदनशील और असहिष्णु होते जा रहे हैं.
     
     सड़क पर गाड़ी को ओवर टेक करने के लिये जगह न देने पर दूसरी कार के ड्राईवर से झगडा करना और फिर गोली मार देना, दो गाड़ियों का हलके से छू जाने पर भी गाली गलौज और फिर एक दूसरे पर हथियारों से हमला, ये समाचार आजकल लगभग प्रतिदिन पढने को मिल जाते हैं. एक दो दिन पहले ही समाचार पत्र में था कि एक व्यक्ति की गाड़ी से दूसरे व्यक्ति की गाड़ी को मोडते समय कुछ खरोंच लग गयी तो उसने अगले चौराहे पर उस पर गोली चला दीं और एक गोली उसके ज़बडे में लगी और उसकी हालत चिंता जनक है. दूसरी घटना में एक चालक द्वारा गाड़ी पीछे करते हुए उसकी गाड़ी दूसरी गाड़ी के बम्पर से टकरा गयी और इसके बाद झगड़ा बढने पर एक व्यक्ति ने हवा में गोलियाँ चला दीं. आज से २० साल पहले सड़क पर गाड़ी चलाते समय दूसरे व्यक्तियों के अधिकारों के प्रति सहनशीलता और सौहार्द्य का भाव और यातायात नियमों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति की एक स्वाभाविक प्रवृति थी और road rage जैसे शब्दों से शायद सभी अनजान थे. यह सही है कि आज वाहनों की संख्या बढने से सडकों पर वाहनों की भीड़ ज्यादा हो गयी है, लेकिन बढती हुई दुर्घटनाओं और road rage का केवल यही कारण नहीं है. आज तो बुजुर्ग और शरीफ़ आदमियों को इस तरह की घटनाओं को देख कर दिल्ली में सड़क पर गाड़ी चलाते हुए हर समय एक भय और आशंका बनी रहती है.

     सड़क पर अगर दुर्घटना में घायल व्यक्ति तड़प रहा हो तो उसे देखने तमाशबीनों की भीड़ तुरंत लग जाती है. दो पहिया वाहन चालक अपना वाहन एक तरफ रोक कर उसे देखते हैं और कुछ देर में अपने रास्ते चल देते हैं. कारें पास से दौडती हुई चली जाती हैं और किसी में यह इंसानियत का भाव पैदा नहीं होता कि रुक कर उसे अस्पताल पहुंचा दें. समय का अभाव, गाड़ी का गंदा हो जाने या पुलिस के चक्करों में पडने का डर ऐसे प्रश्न नहीं जिनका ज़वाब एक व्यक्ति की ज़िंदगी से ज्यादा हो. एक घायल व्यक्ति समय पर चिकित्सा न मिलने से अधिकांशतः सड़क पर दम तोड़ देता है और हमारी संवेदनशीलता भी उसी के साथ मर जाती है.
     
     पहले आस पडौस एक बड़े परिवार की तरह माना जाता था. बुजुर्गों की इज्ज़त और छोटों से स्नेह एक आम बात थी. सभी एक दूसरे के दुःख सुख में शामिल होने को सदैव तैयार रहते थे. कितना अच्छा लगता था जब पत्येक व्यक्ति को एक रिश्ते से संबोधित किया जाता था. लेकिन आज महानगरों में पडौस के व्यक्ति के बारे में जानना तो बहुत बड़ी बात है, पडौस में कोई मकान या फ्लैट नंबर किधर पड़ेगा यह तक नहीं बता पाते. सभी एक दूसरे से अनजान अपनी अपनी दुनियां में जी रहे हैं. किसी को एक दूसरे के सुख दुःख का कुछ पता नहीं. कुछ समय पहले दिल्ली में दो बहनों की महीनों घर में भूखे और बीमार होने पर भी पडौस में किसी को कुछ पता न होना हमारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है. इस प्रेम और सहनशीलता के अभाव में छोटी छोटी बातों पर झगड़ा होना भी एक आम बात है.

     पडौस की बात तो बहुत दूर, एक परिवार में भी हम एक दूसरे की भावनाओं से कितने अनजान हो गये हैं. सभी अपनी ज़िंदगी स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं जिसमें परिवार के अन्य संबंधों का कोई स्थान नहीं है. आज के परिवार के बुज़ुर्ग आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी अपने आप को कितना अवांछित, तिरस्कृत और अकेला पाते हैं. उन्हें केवल प्यार और सम्मान की ज़रूरत है और आज की पीढ़ी उन्हें इतना भी देने को तैयार नहीं. जो बुज़ुर्ग आर्थिक रूप से बच्चों पर निर्भर हैं उनके बारे में तो कल्पना करके ही रूह काँप उठती है. पति पत्नी के संबंधों में असहनशीलता और असंवेदनशीलता उनके बीच बढ़ते हुए तनाव और तलाक का एक प्रमुख कारण बनती जा रही है. हम जितने ज्यादा शिक्षित और समृद्ध होते जा रहे हैं उतने ही अपने संबंधों के प्रति असंवेदनशील और असहिष्णु होते जा रहे हैं. 


     इस बढती हुई असंवेदनशीलता और असहिष्णुता के अनेक कारण हैं, जिनको हम जानते हुए भी अनजान बन रहे हैं. संयुक्त परिवारों के टूटते जाने के कारण आज हमारे बच्चे नैतिक मूल्यों से वंचित होते जा रहे हैं. बाल दिवस के अवसर पर एक कार्यक्रम देख रहा था जिसमें एक बच्ची से पूछा गया कि उसे कौन सा विषय सबसे खराब लगता है तो उसका ज़वाब था Moral Studies (नैतिक शिक्षा). जिस समाज में बच्चों की शुरू से यह सोच हो, उस समाज के भविष्य का स्वतः अनुमान लगाया जा सकता है. माता पिता अपने कार्यों में व्यस्त रहने की वजह से बच्चों के चारित्रिक विकास की ओर कोई ध्यान दे नहीं पाते, और बच्चे कार्टून और टीवी से जुड कर रह जाते हैं.

     आज समाज में किसी व्यक्ति का स्थान उसके ज्ञान, चरित्र से नहीं, बल्कि धन और पद के आधार पर मूल्यांकित किया जाता है, चाहे वह उसने किसी भी गलत ढंग से प्राप्त किया हो. नव-धनाड्यों का क़ानून और नियमों के प्रति अनादर और यह सोच कि पैसे से सब कुछ कराया जा सकता है, राजनीती का गिरता हुआ स्तर और कानून व्यवस्था में उनका बढता हुआ हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और लचर कानून आदि ने दूसरों के अधिकारों के प्रति असहनशीलता और असंवेदनशीलता को बढ़ावा देने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. किसी भी तरह पैसा कमाने की भागदौड ने आज व्यक्ति की संवेदनशीलता को कुचल दिया है.

     आज हम भौतिक सुविधाएँ और धन कमाने के चक्कर में अपनी संस्कृति और संस्कारों को भूलते जा रहे हैं और पता नहीं यह हमारी अगली पीढ़ी और समाज को कहाँ ले जाएगा. पंकज उधास की गायी हुई एक बहुत मर्मस्पर्शी गज़ल ‘दुःख सुख था एक सबका’ तीन पीढ़ियों की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था और सम्वेदनाओं की बदलती हुई स्तिथि का बहुत सटीक और मर्मस्पर्शी चित्रण करती है. आज की अवस्था का चित्रण करती ये पंक्तियाँ दिल को छू जाती हैं :
       अब मेरा दौर है ये, कोई नहीं किसी का.
       हर आदमी अकेला, हर चेहरा अज़नबी सा.
       
       आंसू न मुस्कराहट, जीवन का हाल ऐसा,
       अपनी खबर नहीं है, माया का जाल ऐसा.
       
       पैसा है, मर्तबा है, इज्ज़त बिकार भी है,
       नौकर है और चाकर, बंगला है कार भी है.
       
       ज़र पास है, ज़मीं है, लेकिन सुकूं नहीं है,
       पाने के वास्ते कुछ, क्या क्या पड़ा गंवाना.

14 comments:

  1. हम जितने ज्यादा शिक्षित और समृद्ध होते जा रहे हैं उतने ही अपने संबंधों के प्रति असंवेदनशील और असहिष्णु होते जा रहे हैं. सही और सटीक बात कही है आपने मैं आपकी बातों से सहमत हूँ।
    समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/11/blog-post_20.html

    ReplyDelete
  2. असंवेदनशीलता पर एक संवेदनशील आलेख!
    सादर!

    ReplyDelete
  3. Paisa kamaane ki hod insan ko insan bane rehne mein ghatak siddh ho rahi hai...

    ReplyDelete
  4. har vyakti apne hi dayare me samita hua hai...isse bahar aane me ek anjana bhay use ghere hue hai...lekin is dayare me vo bahut akela bhi hai..samvedansheel aalekh..

    ReplyDelete
  5. @ आज हम भौतिक सुविधाएँ और धन कमाने के चक्कर में अपनी संस्कृति और संस्कारों को भूलते जा रहे हैं
    आपसे बिलकुल सहमत।

    ReplyDelete
  6. बहुत पहले वर्ड्सवर्थ ने कहा था 'the world is too much with us',अब और अधिक ,और अधिक !

    ReplyDelete
  7. sahi baat hai ..paise kamane ki hod me aadami samkaro se pare hatata ja raha hai...yaha tak ki unhe apne baccho ki bhi fikra nahi rah jati ki ve kis marg par ja rahe hai...
    bahut hi vicharniy vishay hai...
    acchi prastuti...

    ReplyDelete
  8. संवेदनशील ह्रदय की संवेदनशील प्रस्तुति...
    सादर...

    ReplyDelete
  9. ye lekh aap ki savednshilta ko darshata hai , bahut hi achche vicharon se brha lekh hai.... bdhai sweekaren...

    ReplyDelete
  10. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।
    मेरा शौक
    मेरे पोस्ट में आपका इंतजार है,
    आज रिश्ता सब का पैसे से

    ReplyDelete
  11. postingan yang bagus tentang"हमारी सम्वेदना और सहनशीलता क्यों मर रही हैं ? "

    ReplyDelete