हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर है इसका सबसे
बड़ा उदाहरण हमारी हिंदी के प्रति सोच और व्यवहार है. सार्वजनिक मंच पर हिंदी को
प्रशासन और जनसाधारण की एक मात्र भाषा बनाने की प्रतिज्ञा लेकर जब हम अपने घर या
कार्यस्थल पर पहुंचते हैं तो हमारी सोच और व्यवहार बिलकुल बदल जाते है. हिंदी बहुत
पीछे देहरी पर खड़ी रह जाती है और हम अंग्रेजी का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ जाते हैं. यह हमारी मानसिकता बन गयी है कि अंग्रेजी में सामान्य वार्तालाप हमारे अभिजात्यपन को दर्शाता है और
हमें भीड़ से अलग करता है और इस वर्चस्व को आगे भी बनाये रखने के लिए आवश्यक है की
हमारी अगली पीढ़ी भी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करके इस परंपरा को
अक्षुण्ण रखे. हिंदी को हमने एक
ऐसी माँ बना कर रख दिया है जिसका परिचय हम
बाह्य जगत को तो बड़े गर्व से कराते हैं लेकिन जिसे अपने घर में अन्दर लाने में
हमें शर्म का अनुभव होता है. हमारे इसी दोगलेपन की सजा हिंदी आज भी भुगत रही है और
इससे अधिक और शर्म की बात क्या होगी कि आजादी के ७० वर्ष बीत जाने पर भी आज यह
विचार विमर्श चल रहा है की हिंदी को कैसे उसका उचित स्थान दिलाया जा सके.
हिंदी के प्रति हमारा यह छद्म प्रेम हमारे दैनिक
व्यवहार में पूर्णतः परिलिक्षित हो रहा है. केन्द्रीय सरकार एवं सार्वजनिक बैंकों
में सभी कर्मचारियों का हिंदी प्रेम केवल हिंदी पखवाडे के अंतर्गत ही दिखाई देता
है.
पिछले कुछ दशकों में बैंकिंग व्यवसाय की सोच में
आमूल परिवर्तन हुआ है. बैंकिंग सेवाओं का लक्ष्य केवल एक वर्ग विशेष न रह कर
जन-साधारण बन गया और इसके साथ ही बैंकों की भाषागत नीति में बदलाव आने लगा और उनके
लिए आवश्यक हो गया कि वे सामान्य व्यक्ति तक उनकी भाषा में सम्प्रेषण करें. सरकार
ने सीमांतक किसानों, मज़दूरों और किसानों के आर्थिक विकास के लिए अनेक योजनायें प्रारंभ
कीं जिनके कार्यान्वन में बैंकों का एक महत्वपूर्ण स्थान था और बैंकों की शाखाओं
का जाल सुदूर गांवों तक फ़ैल गया. इस नए कार्य क्षेत्र में प्रभावी योगदान और सफलता
के लिए आवश्यक हो गया कि बैंक अंग्रेज़ी का मोह छोड़ कर स्थानीय भाषाओं को अपनाएं.
आर्थिक भूमंडलीकरण और वैश्विक बाज़ार की अवधारणाओं
ने बैंकिंग सेवाओं को नए आयाम दिए हैं. आर्थिक भूमंडलीकरण ने विश्व में राजनीतिक
और भोगोलिक सीमाओं को सीमित कर दिया और उसका साक्षात्कार नए नए उत्पादों से कराया.
देश में आर्थिक विकास के साथ लोगों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में भी बदलाव
आया और उन्हें अपनी क्षमताओं से बढ़ कर अपनी आकंक्षाओं को पूरा करने के लिए बैंकों
का आश्रय लेना पड़ा और फलस्वरूप बैंकों को अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार करना पड़ा.
ग्राहकों की बढ़ती हुई संख्या और उनकी बढ़ती हुई आकांक्षाओं की पूर्ती के लिए
आवश्यक हो गया कि बैंक उन तक उनकी भाषा में पहुचें.
भारत सरकार की राज भाषा नीति के अंतर्गत किये गए
प्रयासों ने भी बैंकों में हिंदी के प्रयोग और प्रसार के लिए महत्वपूर्ण योगदान
दिया है, लेकिन यह भी एक सत्य है कि बैंकों में हिंदी के उपयोग के बारे में उपलब्ध
आंकड़े वास्तविकता से बहुत दूर हैं. हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए प्रत्येक बैंक
में राज भाषा विभाग हैं लेकिन उनकी सक्रियता केवल हिंदी पखवाड़ा के समय ही दिखाई
देती है. सभी परिपत्र अधिकांशतः द्विभाषिक रूप में जारी होते हैं, लेकिन क्या ये
परिपत्र मूल रूप से हिंदी में तैयार किये जाते हैं? हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी
इनका मूल प्रारूप अंग्रेजी में ही बनता है जिसका बाद में हिंदी अनुवाद कराया जाता
है. शब्द कोष की सहायता से अंग्रेजी प्रारूप का शब्दशः अनुवाद केवल क्लिष्ट शब्दों
भरा हुआ नीरस अनुवाद बन कर रह जाता है और इसमें मूल की आत्मा और प्रवाह का पूर्णतः
अभाव होता है. यह एक वास्तविकता है की इन परिपत्रों को हिंदी में वे कर्मचारी भी
नहीं पढ़ते जिनकी मातृ भाषा हिंदी है और उन्हें हिंदी का अच्छा ज्ञान है और यह केवल
कागज़ की बरबादी बन कर रह जाता है. ये द्विभाषिक परिपत्र राज भाषा नियमों का अवश्य
परिपालन कर देते हैं लेकिन न तो उनका कोई व्यवहारिक उपयोग है और न हिंदी के प्रसार
में योग दान. यह उचित है कि नीतिगत परिपत्रों में किसी द्विविधा से बचने के लिए
हिंदी के मानक शब्दों का उपयोग हो, लेकिन यह भी आवश्यक है कि ये मानक शब्द सरल और
बोधगम्य हों और अनुवाद ऐसा बन कर न रह जाए कि जिसे समझने के लिए अंग्रेजी प्रारूप
का आश्रय लेना पड़े.
सार्वजनिक बैंकों में विभिन्न कार्यों से संबंधित
अधिकांश आवेदन पत्र, फॉर्म, चेक आदि द्विभाषिक मुद्रित होते हैं. हिंदी भाषी
क्षेत्र में जब किसी व्यक्ति, जो हिंदी में भी निष्णात है, को इस आवेदन पत्र आदि
को भरने के लिए दिया जाता है तो अपने स्वभावानुसार उसे अंग्रेजी में भर कर दे देता
है. जन साधारण में यह मानसिकता जम कर बैठ गयी है कि वह अगर हिंदी में वार्तालाप
करेगा या लिखेगा तो उसे शायद कम शिक्षित की श्रेणी में रखा जायेगा और उसकी ओर उचित
ध्यान नहीं दिया जाएगा. यदि हिंदी क्षेत्र में अधिकांश आवेदन पत्र आदि केवल हिंदी
में ही मुद्रित हों तो अधिकांश व्यक्ति उन्हें हिंदी में ही भरने लगेंगे और क्रमश
यह उनके स्वभाव का हिस्सा बन जायेगा और उसे हिंदी के प्रयोग में किसी हीन भावना का
अहसास नहीं होगा. यदि किसी व्यक्ति को अंग्रेजी भाषा में ये प्रलेख चाहिए तो उसे
वह प्रदान किये जा सकते हैं. यदि ऐसा किया जाए तो मुद्रण और कागज़ पर किये जाने
वाले व्यय में भी बचत की जा सकती है.
राजभाषा अधिनियम के अंतर्गत सभी ‘क’ क्षेत्रों
में हिंदी में कार्य किया जाना चाहिए. आंकड़े चाहे कुछ भी हों लेकिन वास्तविकता यह है
कि महानगरों में स्थित बैंक के कार्यालयों में अभी भी अधिकांश कार्य अंग्रेजी में
ही होता है. कार्यालयों में टिप्पण या पत्राचार में अंग्रेजी का ही बोलबाला है.
कुछ सामान्य कार्य हिंदी में अवश्य कभी कभी किये जाते हों, लेकिन अधिकांश टिप्पण,
पत्राचार, ऋण प्रस्तावों का विश्लेषण एवं सांख्यिकीय डेटा का संकलन और विश्लेषण
अंग्रेजी में ही किया जाता है. इसके विपरीत बैंकों की हिंदी क्षेत्रों में स्थित
शाखाओं में हिंदी का प्रयोग टिप्पण और पत्राचार में बहुलता से किया जाता है,
यद्यपि डेटा संसाधन का कार्य अधिकांशतः अंग्रेजी में ही होता है. संभव है कि ग्रामीण
और छोटे नगरों की बैंक शाखाओं में पदस्थ कर्मचारी समीप के हिन्दी भाषी क्षेत्रों
से सम्बन्ध रखते हों और उन्हें अपने बेहतर हिंदी ज्ञान की वजह से हिंदी में कार्य
करना अधिक सुविधाजनक लगता हो. हिंदी भाषी क्षेत्र के भारत सरकार के कार्यालयों की
तुलना में सार्वजनिक बैंकों में हिंदी के उपयोग की स्थिति निश्चय ही बेहतर है. इसका
प्रमुख कारण यह प्रतीत होता है की बैंकों ने अपने दिन प्रतिदिन के कार्यों/टिप्पण
में बोलचाल की हिंदी को, जिसमें अंग्रेजी के शब्द भी सम्मिलित हैं, बहुत सहजता से
स्वीकार किया है.
वैश्विक बाजार और भूमंडलीकरण ने प्रौद्योगिक और
संचार माध्यमों में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया और भारत का बैंकिंग क्षेत्र भी
इससे अछूता नहीं रह सकता था. भारतीय बैंकों ने भी इन नयी तकनीकों को आत्मसात किया
लेकिन हिंदी इस दौड़ में उसका पूरा साथ नहीं दे पायी और कुछ पिछड़ गयी. संभव है कि
हिंदी को इस प्रौद्योगिक विकास में अभी अपना पूर्ण स्थान बनाने में कुछ समय लगे,
लेकिन वर्त्तमान स्थिति इंगित नहीं करती कि ऐसा करने की हमारी आतंरिक इच्छा शक्ति
है. उदाहरण के लिए अभी तक सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वेब साईट हिंदी में
नहीं है और जिन बैंकों की वेब साईट द्विभाषिक है वहां भी यह एक केवल औपचारिकता लगती
है. वेब साईट खोलने पर पहला पृष्ठ अंग्रेजी में खुलता है जिसके एक कोने में हिंदी साईट या हिंदी वेब साईट लिखा होता है जिसको क्लिक करने पर हिंदी में साईट खुल जाती है. कितने लोगों
की दृष्टि इस हिंदी वेब साईट की उपलब्धता की और जाती होगी? क्या हिंदी के महत्त्व
को दर्शित करने के लिए यह उचित नहीं होता कि वेब साईट का प्रथम/मुख्य पृष्ठ हिंदी में
होता और उसके ऊपर अंग्रेजी के पृष्ठ की उपलब्धता के बारे में इंगित होता? जब पहला
पृष्ठ अगर अंग्रेजी में ही खुल जाता है तो हिंदी भाषी व्यक्ति को, जो अंग्रेजी का
भी ज्ञान रखता है, हिंदी के पृष्ठ पर जाने की उत्कंठा नहीं रहती. इसके अतिरिक्त जब इस वेब साईट के हिंदी पृष्ठ पर अंतर्जाल बैंकिंग सहित किसी भी लिंक्स पर क्लिक किया जाता है तो अगला
पृष्ठ अधिकांशतः अंग्रेजी भाषा में ही खुलता है. कई बैंकों के हिंदी पृष्ठ पर अधिकाँश बैंकिंग
शब्दावली के अंग्रेजी शब्द केवल देवनागरी में लिख दिए गए हैं. इन्टरनेट बैंकिंग
कार्य संपादन(लेन देन) यदि अंत में अंग्रेजी माध्यम से ही करना है तो
हिंदी वेब साईट का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देता और केवल एक दिखावा मात्र रह जाता
है. संभवतः अंतर्राष्ट्रीय इन्टरनेट कनेक्टिविटी एवं अन्य तकनीकी कारणों की वजह से इन्टरनेट बैंकिंग में अभी हिंदी का
पूर्णतः प्रयोग संभव नहीं हो पाया है.
देश में हिंदी के प्रयोग
की वर्त्तमान स्थिति के लिए हम हिंदी भाषी भी कम उत्तरदायी नहीं है. हिंदी भाषी क्षेत्रों में समस्या यह नहीं कि वे हिंदी का कार्य साधक ज्ञान
न होने के कारण हिंदी में कार्य नहीं कर सकते, बल्कि अंग्रेजी का प्रयोग केवल एक
मानसिकता बन कर रह गयी है, हिंदी बोलने और हिंदी में कार्य करने में उन्हें एक हीन
भावना का अहसास होता है और लगता है की लोग उन्हें कम शिक्षित न समझें. हम बच्चों को अच्छे से अच्छे
अंग्रजी माध्यम स्कूलों में पढ़ाते हैं और गर्व महसूस करते हैं जब वे अंग्रेजी में
बात करते हैं और यह परंपरागत सोच ही अंग्रेजी का वर्चस्व बनाये रखने में
महत्वपूर्ण योगदान दे रही है. जब अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में अंग्रेजी की शिक्षा
हिंदी से पहले शुरू की जाती हो और हिंदी को केवल एक गौण भाषा के रूप में पढाया
जाता हो, तब आशा करना कठिन लगता है कि हिंदी कभी अंग्रेजी का स्थान ले पायेगी. अंग्रेजी
के ज्ञान और प्रयोग को शिक्षित, कुशल और बुद्धिजीवी होने का पर्याय मानने वाली सोच
रखने वाले भूल जाते हैं कि रूस, चीन, जापान ने जो विकास किया है वह अंग्रेजी के
सहारे से नहीं बल्कि अपनी भाषा के सम्मान और दैनिक जीवन में प्रयोग से किया है. जब
तक हम अपने अस्तित्व की पहचान अंग्रेजी के माध्यम से ढूँढते रहेंगे तब तक हिंदी को
हमारे जीवन में उचित और सम्मानजनक स्थान नहीं मिलेगा और वह प्रति वर्ष केवल हिंदी
दिवस या हिंदी पखवाड़े तक ही सीमित रह जायेगी. निर्णय हमारे हाथ में है कि हम अपनी
अगली पीढ़ी को अपनी भाषा पर गर्व करने का अवसर देते हैं या नहीं.
...© कैलाश शर्मा